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डाॅ. वेदप्रताप वैदिक

पत्रकारिता, राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति

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प्रख्यात पत्रकार, विचारक, राजनितिक विश्लेषक, सामाजिक कार्यकर्ता एवं वक्ता
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नेपाल की नई सरकार: भारत की सतर्कता जरुरी

December 28, 2022 By Dr. Vaidik Leave a Comment

दैनिक भास्कर, 28 दिसंबर 2022: नेपाल की राजनीति ने जैसा पल्टा खाया है, उसके बारे में लोग दूर-दूर तक कल्पना भी नहीं कर सकते थे। नई सरकार को जिस समय शपथ लेनी थी, उसके कुछ घंटों पहले ही सारी बाजी उलट गई। शेर बहादुर देउबा ने प्रधानमंत्री की शपथ लेनी थी लेकिन उनकी जगह पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ अचानक प्रधानमंत्री बन गए। देउबा की नेपाली कांग्रेस को संसदीय चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें मिली थीं- 275 सदस्यों की संसद में 89 सीटें लेकिन उनकी पिछली गठबंधन सरकार के साथी कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) के नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड को मिलीं सिर्फ 32 सीटें! प्रचंड ने दावा ठोक दिया कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे और राष्ट्रपति भी उनकी ही पार्टी का होगा।

इस प्रस्ताव से देउबा सहमत कैसे होते? देउबा से बात खत्म होते ही प्रचंड अपने पुराने कम्युनिस्ट साथी के.पी. ओली के घर पहुंच गए। दोनों ने पहले मिलजुलकर सरकार बनाई थी और तोड़ी भी थी! दोनों एक-दूसरे के घोर प्रतिद्वंदी भी रहे। लेकिन नेपाली कांग्रेस को मात देने के लिए दोनों एक हो गए। सत्ता की पिपासा ने प्रतिद्वंद्विता की अग्नि को शांत कर दिया। ओली की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी -लेनिनवादी) को इस चुनाव में 78 सीटें मिली हैं याने प्रचंड से लगभग ढाई गुनी लेकिन ओली, जो कि कुछ समय प्रधानमंत्री रह चुके हैं, प्रचंड के हाथ में सत्ता थमाने को तुरंत तैयार हो गए।

क्यों हो गए? क्या इसलिए कि दोनों नेता और पार्टियां कम्युनिस्ट रहे हैं? दोनों ने राजशाही के खिलाफ 10 साल तक मिलकर संघर्ष किया। यदि ऐसा ही था तो फिर दोनों पार्टियों को गठबंधन सरकारें टूटी क्यों? उनमें फूट क्यों पड़ी? एक अपने आप को माओवादी कहती है और दूसरी अपने आप को मार्क्सवादी लेनिनवादी कहती है। दोनों पार्टियों ने नेपाली कांग्रेस का डटकर विरोध किया है लेकिन सत्ता के लोभ ने दोनों को फिसलपट्टी पर चढ़ा दिया है। सत्ता-प्रेम का गोंद अद्भुत है, वह दो बेमेल चीज़ों में भी जोड़ लगा देता है।
इसी सत्ता-प्रेम का एक ताजा रूप भी अभी-अभी सामने आया है। कम्युनिस्ट पार्टियों के इस गठबंधन में 14 सदस्यीय ‘राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी’ भी शामिल हो गई है। इस नई पार्टी को काफी सफलता मिली है लेकिन यह वह पार्टी है, जो नेपाल में राजशाही को दुबारा स्थापित करना चाहती है, जिसके खिलाफ लड़ते-लड़ते ही कम्युनिस्ट लोग काठमांडो में सत्तारुढ़ हुए हैं। इस पार्टी के नेता रवि लमीछने को गृह मंत्रालय दिया जा रहा है। यदि रवि इस गठबंधन में शामिल नहीं होते तो कामरेडों को सरकार बनाने और चलाने में बड़ी मुश्किल होती। इस गठबंधन में मधेसी पार्टी भी शामिल हो गई है, जिसका कम्युनिस्टों के साथ 36 का आंकड़ा रहा है।
इससे क्या सिद्ध होता है? सत्ता ही ब्रह्म है, सिद्धांत तो माया है। ऐसी सिद्धांत विहीन राजनीति के दर्शन हमारे उत्तरप्रदेश में कई बार हो चुके हैं। यह कुर्सी-प्रेम नेताओं को सभी प्रकार के समझौते करने के लिए बाध्य कर देता है और इसी कारण वे बगावत-भी कर बैठते हैं। इसीलिए यह कहना मुश्किल है कि कम्युनिस्टों की यह गठबंधन सरकार अगले पांच साल तक चल पाएगी या नहीं। वैसे नेपाल में जितनी जल्दी सरकारें गिरती और उठती हैं, दक्षिण एशिया के किसी देश में नहीं गिरती-उठतीं।
जहां तक प्रचंड और ओली का सवाल है, दोनों अपने आप को कम्युनिस्ट कहते हैं लेकिन दोनों की नीतियों और आचरण में काफी फर्क है। अब ये लोग नेपाल-नरेश के खिलाफ हिंसक संघर्ष में लगे हुए थे, तब ये दोनों ही घनघोर भारत-विरोधी थे। नेपाल की राजशाही खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर ये दोनों नेता जब भी दिल्ली आए, इनके साथ मेरा खुला संवाद हुआ। मैंने पाया कि प्रचंड का रवैया काफी संयत रहता था लेकिन ओली की लोकप्रियता का आधार भारत-विरोध ही था। ओली ने प्रधानमंत्री के तौर पर नेपाल के नए नक्शे जारी कर दिए और भारतीय सीमांत के कई क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया। भारत के साथ ओली सरकार के संबंध उसके आखिरी दिनों में कुछ ठीक हुए लेकिन ओली की लोकप्रियता का आधार भारत-विरोध ही था।

ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ कट्टर चीन-समर्थक रही हैं। जब-जब काठमांडो में ये दोनों पार्टियां सरकार में रही हैं, चीनी राजदूत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी के बारे में तो यह माना जाता था कि नेपाल की राजनीति की वे ही कर्णधार थी। चीन ने नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए अपनी तिजोरियां खोल रखी थीं। कोई आश्चर्य नहीं कि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों की यह जो गठबंधन सरकार बनी है, उसके पीछे सारा होमवर्क चीनी सरकार का ही रहा होगा। चीन चाहेगा कि यह गठबंधन अपनी कार्यावधि पूरे करे। देउबा सरकार ने भारत और अमेरिका के साथ इधर उत्तम संबंध बनाने की जो पेशकश की थी, उस पर कोई न कोई ब्रेक जरुर लगाए। इस सरकार की कोशिश यह भी होगी कि अब नेपाल के सभी सातों प्रांतों में उनकी सरकार बने। अब राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद का अध्यक्ष भी कोई काॅमरेड ही होगा।

भारत सरकार ने अब तक नेपाल की आतंरिक राजनीति की उठा-पटक से अपने को दूर ही रखा है लेकिन अब यदि यह सरकार भारत-विरोधी तेवर अख्तियार करेगी तो भारत को भी सक्रिय होना पड़ेगा। यह तो बहुत सामयिक कदम कहा जाएगा कि प्रचंड को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबसे पहले बधाई भेज दी। नेपाल की वर्तमान राजनीतिक और आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह भारत से कोई पंगा मोल लेगा लेकिन भारत का सतर्क और सक्रिय रहना बहुत जरुरी है।
27.12.2022

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