पेगासस-जासूसी का मामला उलझता ही जा रहा है। जब यह पेगासस-कांड हुआ, तभी मैंने लिखा था कि सरकार को कुछ प्रमुख विरोधी नेताओं की सर्वथा गोपनीय बैठक बुलाकर उन्हें जरुरी बातें बता देनी चाहिए ताकि जासूसी का यह मामला सार्वजनिक न हो। हर सरकार को जासूसी करनी ही पड़ती है। कोई भी सरकार जासूसी किए बिना रह नहीं सकती लेकिन यदि वह यह सबको बता दे कि वह किस-किस की जासूसी करती है और कैसे करती है तो उसकी भद्द पिटे बिना नहीं रह सकती। सरकार की बेइज्जती तो होती ही है, उससे बड़ा नुकसान यह होता है कि देश के दुश्मनों, आतंकवादियों, तस्करों, ठगों और चोरों को भी सावधान होने का मौका मिल जाता है। ऐसा नहीं है कि यह पेंच हमारी सरकार को पता नहीं है लेकिन उसने पेगासस के मामले को कमरे में बैठकर सुलझाने की बजाय अब उसे अदालत के अखाड़े में खम ठोकने के लिए छोड़ दिया है। कुछ पत्रकारों ने याचिका लगाकर सरकार से पूछा है कि वह दो सवालों का जवाब दे। एक तो उसने पेगासस का साॅफ्टवेयर इस्तेमाल किया है या नहीं? यदि किया है तो किस-किस के विरुद्ध किया है ? उसमें क्या पत्रकारों और नेताओं के नाम भी है? वे राष्ट्रविरोधियों और आतंकियों के नाम नहीं पूछ रहे हैं। pegasus controversy supreme court
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अब सर्वोच्च न्यायालय भी यही पूछ रहा है। उसने पूछा है कि जासूसी करते समय सरकार ने क्या अपने ही बनाए हुए नियमों का पालन किया है? सरकार की घिग्घी बंध गई है। कभी वह कहती है कि इस सूचना को वह सार्वजनिक नहीं कर सकती। कभी कहती है कि वह विशेषज्ञों की एक निष्पक्ष कमेटी से जांच करवाने को तैयार है। अदालत का कहना है कि कमेटी अपनी रपट जब पेश करेगी तो सारे रहस्य क्या खुल नहीं जाएंगे? अदालत ने सरकार से पूछा है कि पहले वह यह बताए कि उसने पेगासस-उपकरणों का इस्तेमाल किया भी है या नहीं? सरकार की बोलती बंद है। एक शेर उसकी स्थिति का सुंदर वर्णन करता है- ‘साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं। अजब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं।’ यदि अदालत अड़ गई तो यह चिलमन भी चूर-चूर हो जाएगी। यदि सरकार ने निर्दोष नेताओं, पत्रकारों और उद्योगपतियों की जासूसी की है तो वह उनसे माफी मांग सकती है और ऐसी गलती कोई भी सरकार भविष्य में न कर सके, उसका इंतजाम कर सकती है। उसका वर्तमान तेवर उसकी छवि को धूमिल कर रहा है और संसद के आगामी सत्र में उसको विपक्ष के आक्रमण का भी सामना करना पड़ेगा।
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