कर्नाटक के नाटक का तो अब पटापेक्ष हो गया है लेकिन इसमें से जो गहरे सबक उभरे हैं, जिन पर हम ध्यान दे सकें तो भारत की राजनीति में काफी सुधार हो सकता है। हमारे राष्ट्रपति, राज्यपाल और अदालतें बदनाम होने से बच सकते हैं।
पहला काम तो यह किया जाए कि जब अस्पष्ट बहुमत की स्थिति हो तो ऐसा कानून साफ तौर पर हो कि बहुमत वाले गठबंधन को सरकार बनाने का मौका सबसे पहले दिया जाए। वह गठबंधन चुनाव के पहले हो या बाद में बने। इस संभावना पर भी विचार किया जाए कि उस गठबंधन में यदि ऐसी पार्टी भी हो, जिसकी सरकार हारी हो तो उसे फिर सरकार में कोई हिस्सेदारी न दी जाए। उसके विधायक और सांसद मंत्री न बनें। जैसे कर्नाटक में हारी हुई कांग्रेस अब सत्ता-सुख से वंचित रहे।
दूसरा, विधायकों और सांसदों की शपथ के पहले या बाद में, चाहे उनकी संख्या कितनी ही हो, उन्हें दल-बदल की सुविधा न हो। वर्तमान दल-बदल कानून में संशोधन किया जाए। तीसरा, अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में सदन में शक्ति-परीक्षण शीघ्रातिशीघ्र करवाया जाए। चौथा, या तो ससंद ऐसा कानून बनाए या सर्वोच्च न्यायालय ऐसा फैसला दे, जिसके कारण राष्ट्रपति और राज्यपाल को स्वविवेक के नाम पर मनमानी करने का मौका न मिले।
कर्नाटक के नाटक में से ये तो संवैधानिक सुझाव उभरे हैं लेकिन राजनीतिक दृष्टि से अब समस्त विरोधी दलों को एक होने का प्रयत्न करना होगा। यदि कांग्रेस अपने हाथ में यह कमान थामना चाहेगी तो वह बहुत बड़ी गलती करेगी। राहुल गांधी यह गलती कर चुके हैं। वे इसे अब न दोहराएं तो ही बेहतर। विरोधी दल यदि 2019 में 350 या 400 सीट जीतना चाहें तो उन्हें अभी से देश के सामने एक व्यावहारिक साझा घोषणा-पत्र पेश करना चाहिए। कर्नाटक में चुनाव-अभियान के दौरान जैसी तू-तू– मैं-मैं हुई है, उससे देश के राजनेताओं को बचना चाहिए।
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