कर्नाटक का चुनाव जीतने में भाजपा ने जितना जोर लगाया, उतना शायद आज तक किसी भी पार्टी ने कोई प्रांतीय चुनाव जीतने में नहीं लगाया। कई प्रांतीय चुनाव तो ऐसे भी हुए हैं, जिनमें सत्तारुढ़ दल के प्रधानमंत्री केवल नाम मात्र के लिए गए या गए ही नहीं। लेकिन गुजरात में नाव डूबते-डबूते बच गई और उप्र व राजस्थान के उप-चुनावों ने इतनी मिट्ठी पलीद कर दी कि कर्नाटक में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी। क्या रुपया, क्या कार्यकर्त्ता, क्या प्रधानमंत्री, क्या मंत्री, क्या मुख्यमंत्री– जो कुछ हाथ आया, उसने सब झोंक दिया।
तब भी 130 सीट सपना बनी रहीं। साधारण बहुमत भी नहीं मिला। सीटें तो ढाई गुना मिल गईं लेकिन कुल वोटों के मामले में पिट गए। कांग्रेस को पटकनी नहीं मार सके। मोदी लहर का नशा उतर गया। चुनाव के दौरान भाषणों का स्तर दोनों पार्टियों के नेताओं ने इतना गिरा दिया कि कर्नाटक मुर्गियों का दड़बा बन गया। हमारे प्रधानमंत्री ने सिद्ध किया कि वोट ही ब्रह्मा है। उसकी प्राप्ति के लिए प्रधानमंत्री ने प्रचारमंत्री का बाना धारण कर लिया।
टीवी चैनलों पर राहुल गांधी की डींग भी खूब उछली। वे प्रधानमंत्री के भावी उम्मीदवार बन गए। अपने मुंह मिया मिट्ठू बनते रहे। बेचारे सिद्धरमैया का बेड़ा गर्क करवा दिया। भाजपा और कांग्रेस दोनों हार गईं। कौन जीता ? कुमारास्वामी-देवेगौड़ा की जनता पार्टी (से.)! अब वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे।
कांग्रेस ने तो आत्मसमर्पण कर ही दिया है। अब भाजपा को भी चाहिए कि वह गरिमा और मर्यादा का पालन करे। यदि वह सरकार बनाने का दावा करेगी या वही करेगी, जो उसने गोवा और मणिपुर में किया है तो बदनामी का ठीकरा वह अपने सिर फोड़ लेगी।
कर्नाटक में यदि वह जीत जाती तो उसका बड़ा नुकसान हो जाता। पहले से मुटियाई हुई भाजपा फुलकर कुप्पा हो जाती और 2019 के चुनाव में उसका उल्टा असर दिखाई पड़ता। भाजपा को खुश होना चाहिए कि 2019 के लिए उसे अब कमर कसने की प्रेरणा मिल सकेगी।
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