एच.डी. कुमारास्वामी को दिल्ली क्यों आना पड़ा ? उन्होंने बेंगलूरु के कांग्रेसियों से ही बात करके अपने मंत्रिमंडल का खाका तैयार क्यों नहीं कर लिया ? कांग्रेस और जनता दल (से.) के बीच 36 का आंकड़ा रहा है। एक का मुंह इधर तो दूसरी का उधर ! सिर्फ सिद्धरमैया और कुमारास्वामी के बीच ही तलवारें खिंची नहीं रही हैं बल्कि देवेगौड़ाजी की दिल्ली में जिस तरह कांग्रेस-अध्यक्ष सीताराम केसरी ने टांग खींची थी, उसे कौन भूल सकता है ?
कर्नाटक के चुनाव में भी भाजपा और जद में जितनी खींचतान हुई, उससे कहीं ज्यादा गोलाबारी हुई है, कांग्रेस और जद के बीच ! अब मजबूरी का नाम महात्मा गांधी । कन्नड़ जनता द्वारा ठुकराए जाने के बावजूद कांग्रेस चाहती है कि पर्दे के पीछे से वह ही राज चलाए ! वह अपना लिंगायत उप-मुख्यमंत्री चाहती है। माल-मलाई वाले मंत्रालय चाहती है। मंत्रियों की संख्या भी जद से दुगुनी चाहती है और यह भी चाहती है कि ढाई साल बाद कुमारास्वामी गद्दी छोड़ दे और कोई कांग्रेसी कर्नाटक का मुख्यमंत्री बन जाए।
ऐसी शर्त पहले भी कुमारास्वामी मान चुके हैं। उसका अंजाम क्या हुआ, सबको पता है। मेरी राय तो साफ है कि नई सरकार के मंत्रिमंडल में हारी हुई सत्तारुढ़ पार्टी का एक भी मंत्री नहीं, होना चाहिए। यदि कुमारास्वामी मेरी इस बात पर अड़ जाएं तो उनका मुख्यमंत्री बनना ही खटाई में पड़ जाएगा
लेकिन वे क्यों अड़ें ? मैं तो सोचता हूं कि 2019 के लोकसभा चुनाव तक उनको जितना झुकना पड़े, झुक जाएं। बाद की बाद में देखी जाएगी। 2019 के लिए यदि वे क्षेत्रीय पार्टियों का सशक्त गठबंधन तैयार कर सकें तो कांग्रेस हाथ मलती रह जाएगी। कोई भी क्षेत्रीय नेता राहुल गांधी को अपना नेता मानने के लिए तैयार नहीं होगा।
2019 में संसद और समस्त विधानसभाओं के चुनाव यदि साथ-साथ होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं कि कुमारस्वामी के जनता दल को स्पष्ट बहुमत ही मिल जाए लेकिन इसके लिए उन्हें साल भर में चमत्कारी काम करके दिखाने होंगे और एक अखिल भारतीय विशाल गठबंधन बनाने में सक्रिय भूमिका अदा करनी होगी।
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