बिहार सरकार के एक मंत्री जमा खान ने अपनी आठ सौ साल की विरासत को याद किया और अपनी खुद की मिसाल पेश करके कहा कि सर संघचालक मोहन भागवत ने जो कहा है, वह बिल्कुल ठीक है। मोहनजी ने पिछले दिनों कहा था कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। डीएनए को लेकर वैज्ञानिकों ने मतभेद प्रकट किए हैं लेकिन मोहनजी के मूल आशय से कौन असहमत हो सकता है ?
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यह ठीक है कि इस्लाम और ईसाइयत का जन्म भारत के बाहर हुआ है और अभारतीय लोग ही इन दोनों मजहबों को भारत में लाए हैं। इन मजहबों के बारे में एतिहासिक तथ्य ये भी हैं कि इन्हें लोगों ने लालच, भय, द्वेष या सत्ता-मोह के कारण ही स्वीकार किया है। कोई कुरान या बाइबिल पढ़कर मुसलमान या ईसाई बना हो, इसके उदाहरण नगण्य हैं। जो अपने आपको हिंदू या जैन या बौद्ध कहते हैं, वे भी इन धर्मों के ग्रंथों को पढ़कर या इनके आदि महापुरुषों के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इन धर्मों को थोड़े ही मानते हैं। सारे मजहबों के मानने के पीछे अक्सर पारिवारिक भेड़चाल ही होती है।
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अलग-अलग मजहबों को मानने का अर्थ यह कभी नहीं होता कि उनके अनुयायी भी अलग-अलग हैं। एक ही भारतीय परिवार ( hindu muslim unity ) में शैव, शाक्त और वैष्णन होते हैं। पौराणिक, आर्यसमाजी, राधास्वामी, रामभक्त और कृष्णभक्त होते हैं। इसी तरह एक ही देश के हिंदू, मुसलमान, यहूदी— सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। यह ठीक है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म बाहर से आए हैं लेकिन बाहर से आए लोग यहीं के लोगों में घुल-मिल गए हैं और उनकी मूल संख्या कितनी रही होगी?
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मुश्किल से कुछ सौ या कुछ हजार ! अब उनके लाखों और करोड़ों अनुयायिओं को भी हम विदेशी मानने लगें, यह हमारी बड़ी भूल होगी। मैं अपने कश्मीर, ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में ऐसे कई बड़े-बड़े मुसलमानों से मिला हूँ जो पक्के मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को आर्य या ब्राह्मण कहने में गर्व महसूस करते हैं। पाकिस्तान के दो-तीन प्रधानमंत्रियों ने मुझसे खुद कहा कि वे मूलतः हिंदू या राजपूत या जाट परिवार से हैं, जैसा कि बिहार के मंत्री जमा खान ने दावा किया है कि उनके परिवार की एक शाखा अभी भी हिंदू है और वे दोनों परिवार, दोनों धर्मों के धार्मिक उत्सव मिल-जुलकर मनाते हैं। कहने का अभिप्रायः यह कि कोई भी देशी या विदेशी विचारधारा या धर्म को माने लेकिन उसकी भारतीयता सर्वोच्च है और अमिट है। हम सबका खून एक ही है।
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