अफगानिस्तान के शहर जलालाबाद में सिखों और हिंदुओं का जिस तरह से कत्ले-आम हुआ है, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उनका एक प्रतिनिधि मंडल अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी से मिलने जलालाबाद जा रहा था। लेकिन वह वहां पहुंचता, उसके पहले ही 20 लोगों की हत्या कर दी गई। उसमें अक्तूबर में होने वाले संसदीय चुनाव के एक उम्मीदवार अवतारसिंह भी शामिल थे। इस हत्याकांड की जिम्मेदारी निजामे-मुस्तफा (इस्लामिक स्टेट) ने ली है, जो कि मूल रुप से अरब देशों में सक्रिय इस्लामी आतंकवादी संगठन है। किसी तालिबान संगठन का नाम इस मामले में अभी तक सामने नहीं आया है। अफगानिस्तान में सिख और हिंदू लोग सदियों से रहते आए हैं। दोस्त मोहम्मद, अब्दुर रहमान, अमानुल्लाह और जाहिरशाह जैसे बादशाहों की सरकारों में हिंदुओं को जिम्मेदारी के बड़े-बड़े पद मिलते रहे हैं। वे अपने धर्म का पालन निष्ठापूर्वक करते हैं लेकिन इस्लामी रीति-रिवाजों का सम्मान भी वे पूरी तरह करते रहे हैं। तालिबान से भी उनके संबंध सरल रहे हैं।
हिकमतयार के संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन में मैंने 30-35 साल पहले कुछ सिखों को भी सक्रिय रहते देखा है। काबुल के लोकप्रिय सांसद बबरक कारमल, जो बाद में राष्ट्रपति बने, मुझे काबुल के गुरुद्वारे और आसामाई का 1800 साल पुराने मंदिर दिखाने 1969 में ले गए थे। अफगान बादशाह जाहिर शाह और लगभग सभी अफगान राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों का हिंदुओं और सिखों से सदा मधुर संबंध रहा है। अफगानिस्तान की संसद के अध्यक्ष वरदक साहब ने मुझे 1969 में जब पहली बार संसद देखने के लिए बुलाया तो मुझे लेने के लिए एक सिख सांसद और उपाध्यक्ष अहद करजई (पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई के पिता) को भेजा था।
अफगानिस्तान के सिखों ने अफगान-संस्कृति से पूरा ताल-मेल बिठा रखा है। वे पश्तो और फारसी बोलते हैं और ज्यादातर सिख व्यापारी हैं। उन पर तालिबान हमला करें, इसकी संभावना कम से कम है। यह हमला पाकिस्तान के आतंकवादी गुटों की तरफ से किया गया हो सकता है। इन्हीं गुटों ने कुछ वर्ष पहले भारतीय दूतावास और जरंज-दिलाराम सड़क बनाने वाले भारतीय कर्मचारियों पर हमला बोला था। यह अफगान हिंदू-सिखों के बहाने भारत पर हमला है। पिछले 40-45 साल में अफगानिस्तान के हिंदू-सिख तीन-चार लाख से घटकर सिर्फ तीन-चार हजार रह गए हैं। हमारे विदेश मंत्रालय ने उनके लिए भारत के द्वार खोल दिए हैं लेकिन वे सब भारत आकर नहीं रह सकते।
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