अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अब अपने वाली पर आ गए हैं। वे अब ईरान को मजा चखाने पर उतारु हो गए हैं। तीन महिने पहले उन्होंने ईरान के जिस परमाणु सौदे को रद्द किया था, उसे लागू करने के लिए उन्होंने ईरान पर प्रतिबंध लागू करना शुरु कर दिया है। यदि ईरान ने घुटने नहीं टेके तो वे नवंबर में ऐसे प्रतिबंध थोपने वाले हैं, जिनसे ईरान का गला भी घुट सकता है। यह समझौता ईरान और छह राष्ट्रों के बीच हुआ था, जिसमें रुस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका थे।
ओबामा-प्रशासन का इसे पूरा समर्थन था लेकिन ट्रंप ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान ही इसे रद्द करने की राय प्रकट कर दी थी। ट्रंप की राय से अन्य महाशक्तियां सहमत नहीं हैं लेकिन वे सब मिलकर भी ट्रंप को अपने हठ से डिगा नहीं सकतीं। अमेरिकी प्रतिबंधों का ईरानी अर्थ-व्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पढ़ना शुरु हो गया है। उसकी राष्ट्रीय मुद्रा रियाल के दाम बुरी तरह से गिरने लगे हैं। रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों के भाव आसमान छूने लगे हैं।
तेहरान, इस्फहान, मशद जैसे शहरों में सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन भी होने लगे हैं। ट्रंप प्रशासन ईरानी नेताओं को बातचीत के लिए निमंत्रण भी दे रहा है और उन पर ये कमर तोड़ प्रतिबंध भी लाद रहा है। उसकी मांग है कि ईरान अपने परमाणु-कार्यक्रम को पूर्णरुपेण बंद करे और पश्चिम एशिया के आतंकवादियों की मदद करने से बाज आए। अमेरिका को असली आपत्ति यह है कि 2015 के परमाणु-समझौते में इतने छेद हैं कि उनका फायदा उठाकर ईरान किसी भी दिन अपना इस्लामी बम बना लेगा। अभी तो ईरान के सोने-चांदी के व्यापार और डालर के उपयोग पर प्रतिबंध लगा है, नवंबर से उसके तेल बेचने और संपूर्ण अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर भी प्रतिबंध लगेगा।
प्रतिबंधों की घोषणा के बाद ईरानी नेताओं की जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, वे पहले की तरह सख्त नहीं हैं और अमेरिकी सरकार भी कड़े शब्दों का प्रयोग नहीं कर रही है। इस आधार पर यह अंदाज लगाना गलत नहीं होगा कि ईरान में भी, उत्तर कोरिया जैसा कोई रास्ता शायद निकल आए। इस संबंध में भारत की कूटनीतिक निष्क्रियता आश्चर्यजनक है। यदि ईरान-अमेरिकी मुठभेड़ हो गई तो सबसे ज्यादा नुकसान भारत का ही होगा, क्योंकि हम ईरान से बड़ी मात्रा में तेल मंगाते हैं और मध्य एशियाई राष्ट्रों से भारत को जोड़ने वाला चाहबहार बंदरगाह का निर्माण-कार्य भी खटाई में पड़ सकता है।
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