सर्वोच्च न्यायालय ने कल अपने ही एक फैसले को उलट दिया। उसने दहेज संबंधी पुराने कानून को बहाल कर दिया। पुराने कानून के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध दहेज-उत्पीड़न की शिकायत आ जाए तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती थी लेकिन इस कानून के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों की बेंच ने पिछले साल यह फैसला दे दिया था कि उस हर शिकायत की जांच के लिए हर जिले में एक परिवार कल्याण समिति बनाई जाए। वह जांच करे और सहमति दे तो ही आरोपी की गिरफ्तारी की जाए।
यह फैसला इसलिए आया कि दहेज संबंधी झूठी शिकायतों का अंबार लगने लगा था और इसके बहाने घरों की बहुएं और उनके परिवारवाले अपने बुजुर्ग रिश्तेदारों को फंसाकर उल्टा अत्याचार करने लगे थे। अब तीन जजों की बेंच ने इस फैसले को रद्द करते हुए कहा है कि जिला समितियों की स्थापना करना अदालत का काम नहीं है। कानून की इस कमी को सुधारना संसद का काम है। इसके अलावा इन जिला समितियों के दांव-पेचों के कारण दहेज-उत्पीड़न के मामलों में न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है।
अदालत के इस दृष्टिकोण को एकदम गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मूल कानून में भी गिरफ्तारी के पहले पुलिस-जांच और अग्रिम जमानत का प्रावधान है लेकिन जिला समितियों के जरिए विवादग्रस्त पक्षों की बीच समझौता करवाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। सामाजिक दबाव और प्रतिष्ठा खत्म होने के डर से भी दहेज-उत्पीड़न अपने आप बंद हो सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि 2017 के फैसले में जो संशोधन किया गया था, वह अधिक मानवीय, अधिक निष्पक्ष और अधिक न्यायपूर्ण मालूम पड़ता है, जैसा कि अनुसूचितों के बारे में इसी अदालत का फैसला आया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि संसद के डर के मारे कि वह इस दहेज संबंधी फैसले को भी न उलट दे, अदालत ने उसे खुद ही उलट दिया ? संसद और अदालत दोनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि अत्याचार-निवारण कानून खुद अत्याचारी न बन जाए।
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