ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के बीच जो समझौता हुआ है, उसके बारे में यह पता नहीं कि ब्रिटिश संसद उस पर मुहर लगाएगी या नहीं? यदि ब्रिटिश संसद ने उसे रद्द कर दिया तो प्रधानमंत्री थेरेसा मे को इस्तीफा देना पड़ेगा और इस समझौते का भविष्य अधर में लटक जाएगा। ब्रिटेन इस यूरोपीय संघ का सदस्य 1973 में बना था। 27 सदस्य राष्ट्रों का यह संघ सारी दुनिया में सबसे समृद्ध और शक्तिशाली संघ माना जाता है। दुनिया के सभी महाद्वीपों में इसकी नकल करते हुए कई अंतरराष्ट्रीय संघ बन चुके हैं लेकिन इस संघ को छोड़ने का निर्णय इसके सबसे शक्तिशाली और समृद्ध राष्ट्र ने 2016 में लिया था।
ब्रिटेन में जनमत संग्रह हुआ और उसके परिणामस्वरुप यह निर्णय हुआ। उस समय केवल 71 प्रतिशत मतदान हुआ था और सिर्फ एक-डेढ़ प्रतिशत के अंतर से यह फैसला हुआ था। यदि मतदान 80 या 90 प्रतिशत होता तो फैसला यही होता कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ में बना रहे। अब भी ब्रिटिश संसद के विरोधी दल और सत्तारुढ़ दलों के कई सदस्य यूरोपीय संघ छोड़ने के विरुद्ध हैं। वे सब यदि मिल गए तो थेरेसा मे और उनका यह समझौता, दोनों ही रद्द कर दिए जाएंगे।
यूरोपीय संघ के सदस्य दो-टूक शब्दों में कह रहे हैं कि वे किसी भी हालत में इस समझौते पर दुबारा कोई बात नहीं करेंगे। लगभग 500 पृष्ठ के इस दस्तावेज को बहुत सोच समझकर स्वीकार किया गया है। वे थेरेसा की समझदारी और व्यावहारिकता के लिए उनको बधाई दे रहे हैं लेकिन इस समझौते के विरोधी ब्रिटिश सांसद और विश्लेषकों का कहना है कि यूरोपीय संघ से निकलने के नाम पर थेरेसा ने ब्रिटिश संप्रभुता का सौदा कर लिया है। ब्रिटेन को यूरोपीय संघ की अदृश्य साँकलों में थेरेसा ने जकड़ दिया है।
ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ के बहिष्कार का फैसला इसलिए किया था कि यूरोपीय देशों के तरह-तरह के आगंतुकों ने ब्रिटेन को अपना बसेरा बना लिया था। सारे नंगे-भूखे लोग ब्रिटेन में जमा होने लगे थे। अंग्रेजों के रोजगार छिनने लगे थे। ब्रिटिश संप्रभुता पतली पड़ती जा रही थी। ब्रिटेन आर्थिक दृष्टि से कमजोर होता जा रहा था। इस समझौते के कारण इन मूलभूत बातों में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसीलिए इसका इतना उग्र विरोध हो रहा है। देखें, अगले दो-तीन हफ्तों में क्या उथल-पुथल होती है। एशियान और दक्षेस-जैसे संघों को इससे काफी सबक मिलेगा।
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