केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया है कि देश के 1765 सांसद और विधायक ऐसे हैं, जिन पर 3045 आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। इनमें नगर-निगमों और पालिकाओं के पार्षद और गांवों के पंच शामिल नहीं हैं। यदि उनकी संख्या भी मालूम की जाए तो यह आंकड़ा दुगुना-तिगुना भी हो सकता है। अभी तो विधायकों और सांसदों की कुल संख्या सिर्फ 4896 है। इन पर चल रहे मुकदमों की संख्या के बारे में याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि वह 13,500 है। ये आंकड़े भी पूरे नहीं हैं। अभी गोवा और महाराष्ट्र की सरकारों ने आंकड़े भेजे ही नहीं। सबसे ज्यादा आपराधिक मामले उ.प्र. के हैं। फिर तमिलनाडु और बिहार के हैं।
ये मामले वे हैं, जो बाकायदा अदालतों में चल रहे हैं लेकिन नेताओं के खिलाफ अदालतों में जाने की हिम्मत कितने लोग कर सकते हैं ? नेता लोग बहुत-से मामलों को डरा-धमकाकर या ले-देकर खत्म करवा देते हैं। तात्पर्य यह है कि हमारी राजनीति पर अपराधों का गहरा साया है। 2014 में इस तरह के 1581 मामले थे। उस समय अदालत के निर्देश पर सरकार ने ऐसी 12 विशेष अदालतें कायम करने की बात कही थी, जो साल भर में सारे मामले निपटा देतीं। लेकिन वे अदालतें अभी तक बनी ही नहीं और अब बनेंगी तो 12 की जगह 24 या 30 बनेंगी। सरकार ने इन अदालतों के लिए 780 करोड़ रु. देना तय किया था लेकिन अब इस राशि को दुगने से भी ज्यादा करना होगा। लेकिन यह कितनी विडंबना है कि यह राष्ट्रवादियों की सरकार इतने गंभीर मामले पर चार साल से सोई पड़ी है। कुंभकर्णजी खर्राटे खींच रहे हैं। यदि अभी तक 100 या 200 नेताओं को भी दंडित कर दिया गया होता तो इस सरकार की छवि चमचमाने लगती। अब उसका मुश्किल से डेढ़ साल बचा हुआ है। उसमें 15-20 जज हजारों मुकदमों को कैसे निपटा पाएंगे ? अपराधी नेताओं पर मुकदमे चलें और उन पर तुरंत फैसले हों, यह तो अच्छा है लेकिन भारत की राजनीति को अपराधमुक्त करना अदालतों से ज्यादा राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है। यदि वे अपराधी नेताओं को टिकिट ही न दें तो राजनीति का शुद्धिकरण अपने आप होने लगेगा। लेकिन इन दलों की मजबूरी यह है कि वे टिकिट उसी को देते हैं, जिसका जीतना पक्का दिखाई पड़ता हो, चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो। इस मामले में कोई दल अपवाद नहीं है।
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