कांग्रेस पार्टी के 84 वें महाअधिवेशन में से निकला क्या ? क्या उसमें से कुछ ऐसे सूत्र निकले, जिनसे देश को कोई आशा बंधे ? क्या कोई ऐसा नेता उसमें से उभरा, जो 2019 में देश का नेतृत्व करने लायक हो ? इन दोनों प्रश्नों का जवाब आप उस अधिवेशन में भाग लेने वाले कांग्रेसियों से ही पूछ लीजिए। वे सब भी हाथ मलते हुए घर चले गए। यह 84 वां अधिवेशन भी किस वेला में हुआ है ? ऐसी वेला में जबकि पूर्वोतर में कांग्रेस का सफाया हो गया है और उत्तरप्रदेश में उसके दोनों संसदीय उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई हैं। अखिलेश और मायावती ने भारत की सबसे पुरानी और महान पार्टी को इस लायक भी नहीं समझा कि उससे चुनावी गंठबंधन करें। अखिलेश ने पिछले साल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और उसका नतीजा देख लिया। हम तो डूबें हैं सनम, तुमको भी ले डूबेंगे।
इसमें शक नही कि कांग्रेस अभी भी एक पूर्ण अखिल भारतीय पार्टी है और इसका सशक्त रहना भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ ही होगा। लेकिन इसके पास न तो कोई नेता है और न ही नीति है। 2019 के चुनावों में देश के अन्य दल इसे अपना नेता क्यों मानेंगे, कैसे मानेंगे ? लोकसभा में इसके 50 सदस्य भी नहीं हैं और यह सिर्फ चार राज्यों में सिमटकर रह गई है। इसके पैसों के झरने भी सूखते जा रहे हैं। सिर्फ नरेंद्र मोदी को अहंकारी और ड्रामेबाज कह देने से काम चल जाएगा क्या ? जनता को इससे क्या फर्क पड़ता है? मोदी क्या है, इसे आपसे ज्यादा संघ और भाजपा के लोग जानते हैं। भारत की जनता भी जानने लगी है। इसका अंदाज हम-जैसे लोगों को पहले से था लेकिन फिर भी देश की मजबूरी थी कि आप की जगह उसको लाना पड़ा, क्योंकि देश की जनता भ्रष्ट और छद्म सरकार से तंग आ चुकी थी। इतनी तंग आ गई थी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मोदी तो क्या, किसी को भी बिठा सकती थी।
यह ठीक है कि आज चार साल में देश का मोहभंग शुरु हो गया है लेकिन देश का नेतृत्व बदलने के पहले कांग्रेस को अपने नेतृत्व पर विचार करना होगा। वोट डालने के लिए मशीनों के बजाय पर्चियों की मांग करना और लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाने की मांग का विरोध करना क्या है ? क्या यह बौद्धिक शून्यता का परिचायक नहीं है ? कांग्रेस की कृपा का ही परिणाम मोदी है और मोदी का यदि दुबारा आना हुआ तो वह भी कांग्रेस की कृपा से ही होगा।
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