सरकारी नौकरियों की भर्ती में आरक्षण की व्यवस्था तो पहले से चली आ रही है। अब पदोन्नतियों में भी आरक्षण की मांग की जा रही है। 2006 में नागराज के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया था। उसने फैसला दिया था कि हर अनुसूचित अफसर को पदोन्नति कैसे दी जा सकती है? ज्यों-ज्यों पद ऊंचे होते जाते हैं, उनकी संख्या घटती जाती है। जब तक पदों की संख्या और अनुसूचित अफसरों की संख्या का अनुपात ठीक-ठीक नहीं मालूम हो, आंख मींचकर सब की पदोन्नति कैसे की जा सकती है?
जब यही सवाल अभी अदालत ने पूछा तो सरकारी वकील ने तरह-तरह के बहाने गिना दिए। दिल्ली में सरकार किसी की हो, कांग्रेस की हो या भाजपा की, उसे दब्बूपन दिखाना ही होगा, क्योंकि वह वोट की गुलाम होती है। वोट पाने के लिए वह सब कुछ कर सकती है, जो राजा भर्तृहरि ने एक श्लोक में कहा है। उन्होंने कहा है कि राजनीति एक साथ सच और झूठ बोलती है, एक साथ कठोर और मृदु होती है, वह अंधाधुंध पैसा बटोरती और बहाती है। वह तो वेश्या की तरह होती है। उसके रुप अनेक होते हैं।
भारत के किसी नेता या राजनीतिक दल में इतना नैतिक बल नहीं है कि वह खुलकर कह सके कि जातिवादी आरक्षण जहर है। आरक्षण जिन्हें दिया जा रहा है, उन जातियों को जहर पिलाया जा रहा है। यह उन्हें अनंतकाल तक दलित-वंचित बनाए रखने का षडयंत्र है। मुट्ठी भर लोगों (क्रीमीलेयर) को सरकारी पदों पर डाका डालने की छूट दी जा रही है और यह मानकर चला जा रहा है कि देश के करोड़ों वंचितों और दलितों के प्रति हमारा कर्तव्य पूरा हो गया। हजारों वर्षों से दमन और अन्याय की चक्की में पिस रहे हमारे दलितों और आदिवासियों का उद्धार आरक्षण से नहीं, शिक्षण से होगा। शारीरिक और बौद्धिकश्र म का फासला घटाने से होगा। जन्मना जातिवाद की जड़ों में मट्ठा पिलाने से होगा। कौन करेगा, यह काम ? देश में आज कोई महर्षि दयानंद होता या महात्मा गांधी होता या डा. लोहिया होता या डा. आंबेडकर होता तो वह ईमान की आवाज उठाता। आज दलित अत्याचार का निवारण करने के लिए दलितों को सवर्णो की तरह अत्याचारी बनने की सुविधा दी जा रही है। अदालत के कान काटने वाला कानून बन रहा है। और अब हमारी ‘दलितप्रेमी सरकार’ नौकरियों में सेंत-मेंत पदोन्नति दिलवाकर दलितों के थोक वोट कबाड़ने पर तुली हुई है। हमारी संसद में एक सदस्य भी ऐसा नहीं है, जो इस मसले पर सच बोलने की हिम्मत करे।
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