भाजपा को त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में मिली जीत चमत्कारी है। इसका श्रेय असम के अब भाजपा नेता लेकिन पूर्व कांग्रेसी नेता हेमंता विस्वा सरमा को दिया जाए या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तपस्वी प्रचारकों को दिया जाए या इन प्रदेशों के ईसाई नेताओं और आदिवासियों को अपनी तरफ झुका लेने को दिया जाए या नरेंद्र मोदी और अमित शाह के प्रचार और जोड़ तोड़ को दिया जाए या सबको मिला कर दिया जाए? लेकिन एक बात पक्की है कि भाजपा की इस जीत ने भारतीय राष्ट्रवाद को शक्तिमंत बनाया है। भाजपा जैसी हिंदुत्ववादी पार्टी और नरेंद्र मोदी जैसे नेता को इन प्रदेशों ने स्वीकार करके यह संदेश दिया है कि राजनीति में विचारधारा का महत्व गौण हो गया है और सुशासन प्रधान हो गया है। इन प्रदेशों के ईसाई मतदाताओं ने चर्च की अपीलों को दरकिनार कर दिया और उस पार्टी को अपना वोट दिया, जिसने नागरिकों को बेहतर सुविधाएं देने का वादा किया। भाजपा ने भी गोमांस भक्षण, धर्म परिवर्तन और ईसाइयत जैसे मुद्दों पर अपना रवैया इतना नरम कर लिया कि उसके होने या न होने का पता ही नहीं चला। सच पूछा जाए तो पूर्वोत्तर की इस विजय ने ही भाजपा को वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी बना दिया है। इस समय भाजपा देश के 21 राज्यों में दनदना रही है। इस विजय ने भाजपा के ढलते हुए सूर्य को नई रोशनी दे दी है। राजस्थान और मप्र के उपचुनावों और गुजरात के चुनाव ने भाजपा की चूलें हिला दी थीं और कांग्रेस का हौसला बुलंद कर दिया था लेकिन इन चुनावों ने राहुल के नेतृत्व और कांग्रेस के भविष्य पर दुबारा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। कांग्रेस अब सिर्फ चार राज्यों में सिमट गई हे। कर्नाटक, पंजाब, मिजोरम और पुड्डुचेरी!
इन नतीजों का असर कर्नाटक पर पड़े बिना नहीं रहेगा। लेकिन इन सीमांत राज्यों की इस चमत्कारी विजय से भाजपा को फूलकर कुप्पा होने की जरूरत नहीं हैं सिर्फ पांच सांसदों वाले ये राज्य 2019 के चुनावों में कोई खास भूमिका नहीं निभा सकते। और फिर, इन राज्यों की यह फितरत है कि ये उसी पार्टी के साथ प्रायः चल पड़ते हैं, जिसकी केंद्र में सरकार होती है। ये राज्य केंद्र की लाठी पकड़े बिना चल नहीं पाते। इसके अलावा ये देश के मुख्य राजनीति प्रवाह से भी सीधे नहीं जुड़े रहते। यदि ये जुड़े रहते तो 2014 में पांचों सांसद भाजपा के होते और अभी भी इनका रवैया देख कर यह कहना कठिन है कि देश के आम नागरिकों की तरह इन्हें मोदी सरकार से कोई मोहभंग हो रहा है। त्रिपुरा की हार ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को जो धक्का लगाया है, वह मरणांतक है।
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