प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सारी औपचारिकताओं को दरकिनार करके पहले चीन और अब रुस चले गए। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में इसे साधारण घटना नहीं माना जाएगा। लेकिन मूल प्रश्न यह है कि इन दोनों असाधारण घटनाओं में से निकला क्या ? क्या दोनों महाशक्तियों से कुछ ऐसी बात हुई, जिससे हमारे द्विपक्षीय मतभेद शिथिल हुए हों ? जिन मुद्दों पर इन राष्ट्रों से भारत की पहले से सहमति थी, उन्हें ही दोहराया गया। जैसे रुस के साथ भारत के आर्थिक और सामरिक संबंध घनिष्ट होंगे।
कुछ लफ्फाजी भी कर दी गई। जैसे इस यात्रा के कारण वे अति उच्च सामरिक स्तर पर पहुंच गए हैं। लेकिन रुस के साथ न तो चीन के गैर-कानूनी रेशम महापथ के बारे में कोई बात हुई, न पाकिस्तान के साथ रुसी सैन्य अभ्यास की चर्चा हुई और न ही अफगान-तालिबान के साथ चल रही रुसी मध्यस्थता के बारे में कोई संकेत मिला।
ये वे मसले हैं, जिनका भारत के राष्ट्रहितो से सीधा संबंध है। जहां तक शस्त्र-खरीद का सवाल है, यह हमारी चिंता का उतना विषय नहीं है, जितना रुस की चिंता का विषय है। हम जहां भी डालर फेकेंगे, शस्त्र अपने आप चले आएंगे। यही बात मोदी की ताजा चीन-यात्रा पर लागू होती है। क्या चीन ने दोकलाम पर अपना रुख कुछ नरम किया, क्या उसने परमाणु सप्लायर्स ग्रुप में भारत को शामिल करवाने के कुछ संकेत दिए, क्या उसने कब्जाए हुए कश्मीर में रेशम महापथ (ओबोर) बनाने पर रोक लगाई, क्या उसने पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अजहर के बारे में अपना रुख बदला, क्या वह दलाई लामा पर नरम पड़ा, क्या उसने लद्दाख और अरुणाचल के बारे में कोई नई बात कही?
बिल्कुल नहीं। तो फिर इस सिर के बल दौड़े जाने का फायदा क्या ? विदेश नीति में कभी-कभी शीर्षासन की मुद्रा धारण करना भी जरुरी हो जाता है लेकिन यहां उसका कोई कारण साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ रहा है। इन दोनों यात्राओं से हालांकि भारत का कोई नुकसान हुआ हो, ऐसा नहीं लगता लेकिन इनसे हमारे प्रधानमंत्री की छवि जरुर मजाकिया-सी बनने लगती है याने किसी ने घंटी बजाई और आप दौड़ पड़े।
मैं पूछता हूं कि खुद शी चिन फिंग और व्लादिमीर पुतिन दिल्ली क्यों नहीं आ गए ? विदेश-यात्राओं पर प्रधानमंत्री ने करोड़ों रु. खर्च कर दिए, उसकी तो कोई बात नहीं लेकिन मूल समस्या यह है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर सोचने-समझने और देश में कुछ ठोस काम कर दिखाने के लिए जो समय लगाना चाहिए, वह या तो विदेश यात्राओं में बर्बाद होता है या स्थानीय और प्रांतीय चुनावों में। ये सब काम हमारी सुयोग्य विदेश मंत्री सुषमा स्वराज बेहतर तरीके से कर सकती हैं लेकिन उन्हें ताक पर बिठा दिया गया है। अब इस आखिरी साल में यह मुद्रा बदले तो देश का कुछ भला हो।
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