श्री सोमनाथ चटर्जी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ऐसे नेता थे, जिन्हें नंबूतिरिपाद और ज्योति बसु की श्रेणी में रखकर याद किया जाएगा। हालांकि वे इन दोनों नेताओं की तरह न तो अपने-अपने प्रदेशों के मुख्यमंत्री बने और न ही मरते वक्त मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य रहे। यदि उन्हें मौका मिलता तो वे योग्य प्रधानमंत्री भी सिद्ध हो सकते थे। वे लोकसभा के 10 बार सदस्य रहे और पांच साल अध्यक्ष रहे।
वे मार्क्सवाद में गहरी आस्था रखते हुए भी भारतीय संस्कृति के मूल्यमानों से ओत-प्रोत थे। उनके पिता श्री निर्मलचंद्र चटर्जी हिंदूसभा के अध्यक्ष थे और उनका श्यामाप्रसाद मुखर्जी और वीर सावरकर के साथ घनिष्ट संबंध था। वे स्वयं सांसद थे। वे बाद में दिल्ली के ग्रीन पार्क में रहने लगे थे। पास में ही हौजखास में हिंदू महासभा के बड़े नेता श्री विष्णु देशपांडे रहा करते थे। उनके घर पर ही एन.सी. चटर्जी से लगभग 50-55 साल पहले मेरी भेंट हुआ करती थी।
श्री चटर्जी हिंदू महासभाई थे लेकिन उनके बेटे सोमनाथ (सोमनाथ मंदिर को ज़रा याद करें) लंदन में पढ़ते वक्त मार्क्सवादी हो गए। एक बार दुनिया के लोकसभा अध्यक्षों का सम्मेलन दिल्ली में सोमनाथजी ने आयोजित किया तो मोरिशस, फीजी और सूरिनाम के अध्यक्षों ने मुझसे कहा कि चटर्जी साहब से हमारा परिचय करवा दीजिए। मैंने जब उनके साथ—साथ उनके पिताजी का भी परिचय दे दिया तो उनमें से सूरिनाम की इंदिरा बहन ने पूछा कि क्या यह सही है ? तो सोमनाथ दा बोले ‘वैदिकजी जो बोला, वो गलत कैसे हो सकता?’ सोमनाथ दा से अभी दो-तीन माह पहले ही फोन पर बात हुई थी। तबियत का हाल पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘बस, चलता है।’
2008 में जब अमेरिका से परमाणु-सौदे को लेकर मार्क्सवादी पार्टी ने कांग्रेस के विरुद्ध मोर्चा खोला तो सोमनाथ दा को अध्यक्ष-पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि अध्यक्ष-पद पार्टीबाजी से ऊपर होता है। इस पर पार्टी अध्यक्ष प्रकाश कारत ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया। सोमनाथ दा को अंत तक इसका मलाल रहा। लोकसभा अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने निष्पक्षता और उच्च मर्यादा का आचरण किया। वे एक उत्तम वक्ता, ईमानदार नेता और श्रेष्ठ कोटि के बौद्धिक के तौर पर जाने जाते रहेंगे। उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि !
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