सरकार ने पहले अनाज के दाम बढ़ाकर किसानों को राहत दी और अब पेट्रोल और डीजल के दाम घटाकर आम आदमी के गुस्से को ठंडा किया। ये दोनों काम तारीफ के लायक हैं। उचित समय पर किए गए हैं। लेकिन जरा गहराई में उतरें और खुद से पूछें कि ये काम इतनी जल्दी कैसे कर दिए गए, क्यों कर दिए गए तो इनका उत्तर पाकर हमारी तारीफ की दाल पतली हो जाएगी। मोदी सरकार को पता चल गया है कि उसकी लाख कोशिशों के बावजूद देश की जनता मोहभंग की स्थिति में है। प्रधानमंत्री का प्रचारमंत्री की तरह पेश आना एक ऐसा तेवर है, जो पहले दो-तीन साल तो काम कर गया लेकिन अब उसकी चमक उतर रही है। इस मौके पर फसलों के दाम बढ़ाना और पेट्रोल के घटाना अच्छा है लेकिन ऐसा है, जैसे किसी भूखे को चटनी चटाना। क्या अनाजों के दाम दो-चार रु. किलो बढ़ा देने से किसान की दुर्गति दूर हो जाएगी ? क्या भारत के किसानों को उनके उत्पादन पर उतना ही मुनाफा मिलता है, जितना उद्योगपतियों को अपने उत्पादनों पर मिलता है?
क्या किसानों को उनकी ही तरह अरबों-खरबों रु. का कर्ज मिलता है? क्या उनका कर्ज उसी धड़ल्ले से माफ होता है ? उन्हें बीज, खाद और सिंचाई की सुविधाएं उचित दाम पर मिले, क्या इसके लिए कोई विशेष प्रयत्न दिखाई पड़ता है ? यही हाल पेट्रोल और डीजल का है। इनके दाम में पांच रु. कम कर देने पर सरकार को 10 हजार करोड़ रु. का घाटा होगा लेकिन वह क्यों नहीं बताती कि पिछले चार साल में उसने तेल को कितना निचोड़ा है? उसने तेल से 13 लाख करोड़ कमाए हैं। उसने चार साल में तेल पर 12 बार टैक्स बढ़ाया है। पेट्रोल पर दुगुना और डीजल पर पांच गुना।
तेल की जितनी कीमत, उससे ज्यादा टैक्स! सासू छोटी, बहू बड़ी। तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत बढ़ गई, यह भी झूठा बहाना है। 2014 में वह 107 डालर प्रति बैरल थी। आज वह 85 डालर है। तेल का आयात घटाने के लिए चार साल में सरकार ने क्या किया? कौन से तेल के नए कुंए खोदे हैं ? भाषणों से तालियां बज सकती हैं, जमीन से तेल नहीं निकल सकता! अभी तो ईरानी तेल पर 4 नवंबर से प्रतिबंध लगेगा, तब देखेंगे कि तेल और डालर की कीमत कितनी ऊंची छलांग लगाएगी ?
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