रेफल विमानों की खरीद के बारे में सरकार ने अब सही राह पकड़ी है। अभी तक वह इस बात पर अड़ी हुई थी कि वह यह नहीं बताएगी कि 500 करोड़ रु. का विमान उसने 1600 करोड़ रु. में क्यों खरीदा है? इस पहेली का उत्तर न तो वह उसके विरोधियों को दे रही थी, न वह संसद को बता रही थी और सर्वोच्च न्यायालय को भी उसने टरका दिया था लेकिन जब से यह विवाद सार्वजनिक हुआ है, मैं बराबर कहता रहा हूं कि सरकार की संतोषजनक जवाबदेही सामने आनी चाहिए। सरकार के इस कथन से मैं सहमत हूं कि वह युद्धक विमानों के सारे रहस्य सार्वजनिक नहीं कर सकती लेकिन वह मोटे तौर पर यह तो बता सकती थी कि उसने फ्रांसीसी कंपनी दुसाल्ट को तीन गुना पैसे देना क्यों तय किया है? उसकी चुप्पी ने इतनी दहाड़ मार दी कि चोर भी खुद को साहूकार बताने लगा। रेफल तो बोफोर्स का बाप बन गया। वह 60 करोड़ की लूट थी यह 60 हजार करोड़ की लूट बन गई।
यदि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के कान नहीं मरोड़े होते तो 2019 के चुनाव में रेफल का मुद्दा उसे ले बैठता। अभी सरकार ने सीलबंद लिफाफे में अदालत के सामने तिगुनी कीमत के कारणों की सफाई पेश की है। पता नहीं, जज लोग उससे संतुष्ट होंगे या नहीं ? जहां तक याचिकाकर्ताओं को दिए गए विवरण का सवाल है, उसमें सरकार ने दावा किया है कि उसने रेफल की खरीद के लिए 74 बैठकें की हैं और खरीद-प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन किया है। इस खरीद में 8-10 वर्ष का समय बर्बाद हो गया और इस अवधि में प्रतिद्वंदी राष्ट्रों के पास 400 से ज्यादा आधुनिक युद्धक विमान आ गए। इसीलिए भारत को बने-बनाए 36 जहाजों का सौदा करना पड़ा और जो 108 जहाज भारत में बनने थे, वह सौदा रद्द करना पड़ा।
सरकार ने यह दावा भी किया है कि फ्रांसीसी कंपनी ही तय करेगी कि उसका भागीदार कौन होगा ? इससे भारत सरकार का कुछ लेना-देना नहीं है। अदालत को इस मुद्दे पर भी जोर देना होगा, क्योंकि सारे शक की जड़ यही मुद्दा है। तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति ओलांद के मुताबिक अनिल अंबानी को भारतीय भागीदार बनाने का सुझाव हमारी सरकार ने ही दिया था। यहां प्रश्न यह भी है कि जब भारत में उन जहाजों को बनना ही नहीं है तो भागीदार की जरुरत ही क्या है ? इसी से दलाली का शक पक्का होता है। इस मामले में थोड़ी सफाई और भी चाहिए।
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