अपनी मांगों के लिए देश में दंगे और तोड़-फोड़ करनेवा लों की अब खैर नहीं है, क्योंकि भारत का सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार, दोनों ही उन पर लगाम लगाने के लिए कटिबद्ध हो गए हैं। भारत के एटार्नी जनरल ने अदालत में मांग की है कि हर जिले के सरकारी अधिकारियों को जिम्मेदार बनाकर दंगों और तोड़-फोड़ को रोका जाए। और अदालत ने भी कहा है कि जिस तरह से अवैध निर्माण-कार्यों को रोकने के लिए संबंधित जिला-अधिकारियों को जवाबदेह बनाया गया है, वैसे ही किसी भी प्रदर्शन, धरने या जुलूस के हिंसक होने पर उसे रोकने की जिम्मेदारी स्थानीय अधिकारियों पर डाली जाए। यदि वे अपनी जिम्मेदारी में असफल हों तो उन्हें उसका दंड भुगतना पड़े।
पिछले दिनों पद्मावती फिल्म को लेकर कर्णी सेना ने कितना उत्पात मचाया था। उन्होंने दीपिका पादुकोण की नाक काटने की घोषणा कर दी थी और सिनेमाघरों को जलाने की धमकियां दे दी थीं। मैंने जब उस फिल्म को देखकर अपनी राय प्रकट की तो मुझे हत्या की धमकियां आने लगीं लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इस प्रकार मराठा प्रदर्शनकारियों और अनुसूचितों ने जो भयंकर उत्पात मचाया, उसमें कावड़ियों ने और अधिक मिर्च-मसाला मिला दिया। जब तक इन हिंसक प्रदर्शनों या सामूहिक हिंसा के खिलाफ तत्काल और ठोस कार्रवाई नहीं होगी, हमारा लोकतंत्र मजाक बनकर रह जाएगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि विरोध-प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार से जनता को वंचित कर दिया जाए। जन-आक्रोश और जन-असंतोष को फूटकर बह निकलने का सबसे अच्छा रास्ता यही है लेकिन राज्य का यह धर्म है कि उसे वह हिंसक, अश्लील और फूहड़ न होने दे। जो भी इस तरह के हिंसक आयोजन करें, चाहे वे कोई संगठन हों या राजनीतिक दल हों या व्यक्ति हों, उन्हें उसकी सजा जरुर मिलनी चाहिए। उन्हें जेल हो और उन्हें जुर्माना भी भरना पड़ा तो वे इस कुकर्म से जरुर बाज आएंगे। भारतीय लोकतंत्र का स्तर ऊंचा उठेगा और देश का आम नागरिक अपने आपको अधिक सुरक्षित समझेगा।
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