दैनिक भास्कर, 7 जून 2019: सरकार की नई शिक्षा नीति का जो मसौदा बना है, उसमें प्रतिपादित त्रिभाषा सूत्र पर तमिलनाडु में इतना जमकर हमला हुआ है कि सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। नई सरकार ने अपना काम-काज शुरु किया ही था कि दक्षिण भारत के राज्यों से विरोध के स्वर उठने लगे। जिन दक्षिणात्य पार्टियों ने भाजपा का समर्थन किया था, वे भी इस त्रिभाषा सूत्र के खिलाफ खम ठोकने लगीं। मोदी सरकार पहले दिन ही पसोपेश में पड़ गई। उसके तमिलभाषी मंत्रियों जयशंकर और निर्मला सीतारमण के साथ-साथ नए शिक्षा मंत्री निशंक को सफाई पेश करनी पड़ी कि यह नई शिक्षा-नीति का मसौदा भर है। रपट भर है, यह नीति नहीं है। और दूसरे ही दिन उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी।
भाजपा मूलतः हिंदी राज्यों की ही पार्टी रही है। पहली बार उसने दक्षिण और पूर्व में पांव पसारे हैं। भला, इन गैर-हिंदी राज्यों की नाराजी वह कैसे मोल ले सकती है ? इसीलिए इस नई शिक्षा नीति बनानेवाली कमेटी के अध्यक्ष कस्तूरी रंगन ने तत्काल हिंदी की पढ़ाई को अहिंदीभाषी राज्यों के लिए एच्छिक घोषित कर दिया याने लालबहादुर शास्त्री के ज़माने से यह त्रिभाषा-सूत्र जिस तरह से लंगड़ाता हुआ चल रहा है, अब भी वैसे ही चलता रहेगा। यह त्रिभाषा सूत्र क्या है ? मोटे तौर पर इसका अर्थ है देश के छात्रों को तीन भाषाओं का अध्ययन करना होगा। अपनी मातृभाषा (प्रांतीय भाषा), हिंदी और अंग्रेजी। सरकार स्कूलों में बच्चों को ये तीन भाषाएं पढ़नी चाहिए लेकिन अब तक हुआ क्या है ? यह त्रिभाषा सूत्र देश के ज्यादातर राज्यों में शुद्ध पाखंड सिद्ध हुआ है। हम हिंदीभाषियों ने इसकी धज्जियां उड़ा दी हैं। हमारे बच्चे हिंदी और अंग्रेजी सीखते हैं लेकिन कोई भी अन्य भारतीय भाषा नहीं सीखते। उत्तर भारत के स्कूलों में दक्षिण या पूर्व भारत की कोई भाषा नहीं सिखाई जाती। उनकी जगह संस्कृत सीखने का नाटक किया जाता है।
इसका जवाब हमें तमिलनाडु देता है। वह भी हमारी तरह सिर्फ अपनी मातृभाषा तमिल और अंग्रेजी पढ़ाता है। उसके बच्चे हिंदी का बहिष्कार करते हैं। हिंदी के विरुद्ध तमिलनाडु में 1965 में इतना जबर्दस्त आंदोलन चला था कि उसमें दर्जनों लोग मारे गए और कांग्रेस का सूंपड़ा हमेशा के लिए साफ हो गया। लेकिन दक्षिण के कुछ राज्यों में त्रिभाषा-सूत्र लागू किया जाता है, खासकर केरल और आंध्र में। वहां के शिक्षित लोगों को जब हम धाराप्रवाह हिंदी बोलते हुए सुनते हैं तो हमें अपने पर शर्म आती है कि हम लोग मलयालम, कन्नड़, तेलुगु पर तमिल का एक वाक्य तक नहीं बोल सकते। दूसरे शब्दोें में त्रिभाषा-सूत्र भारत में ईमानदारी से कभी लागू हुआ ही नहीं। यहां तो व्यवहार में द्विभाषा-सूत्र ही चलता रहा। याने हिंदी-राज्यों में हिंदी और अंग्रेजी चलती रही और अहिंदी राज्यों में उनकी भाषा और अंग्रेजी चलती रही। हिंदी कहीं चली, कहीं नहीं चली। लेकिन अंग्रेजी सर्वत्र चलती रही। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी का रुतबा बढ़ता चला गया। जिस भाषा के वर्चस्व के विरुद्ध महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी ने निरंतर संग्राम चलाया, वह दो प्रतिशत भारतीयों से बढ़कर अब 10 प्रतिशत भारतीयों में फैल गई।
इस भाषाई गुलामी के विरुद्ध पहली बार किसी सरकारी कमेटी ने इतना खुलकर शंखनाद किया। एक तमिलभाषी वैज्ञानिक की अध्यक्षता में बनी इस कमेटी की रपट में अंग्रेजी के वर्चस्व से होनेवाले नुकसानों को गिनाया गया है। अंग्रेजी थोपने के विरुद्ध जो तर्क महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया, विनोबा भावे और मैंने दिए हैं, उन्हें दोहराने का साहस इस रपट में किया गया है। हम अंग्रेजी क्या, किसी भी विदेशी भाषा के पढ़ने और पढ़ाने के विरुद्ध नहीं है बल्कि यह मानते हैं कि हमारे छात्र जितनी विदेशी भाषाएं पढ़ेंगे, उनके ज्ञान की उतनी ही खिड़कियां खुलेंगी लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई ने देश में गैर-बराबरी की गहरी खाई खोद दी है। एक देश मे दो देश खड़े कर दिए हैं- एक इंडिया और दूसरा भारत ! बच्चे सबसे ज्यादा समय और शक्ति अंग्रेजी सीखने में खपाते हैं और फेल होनेवाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या इसी भाषा में होती है।दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है, जहां बच्चों को कोई विदेशी भाषा जबर्दस्ती सिखाई जाती है। दुनिया की कोई महाशक्ति ऐसी नहीं है, जो विदेशी भाषा के जरिए महाशक्ति बनी हो। भारत में अंग्रेजी की गुलामी इतनी गहरी है कि हमारे बच्चे चीनी, जापानी, फ्रांसीसी, जर्मन, अरबी, फारसी, रुसी आदि भाषाएं भी नहीं सीखते। उसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ता है, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में। स्वभाषाओं के प्रति हीनता-ग्रंथि इतनी कठोर बनती जाती है कि देश का भद्रलोक नकलची बनता जाता है और उसकी मौलिकता नष्ट हो जाती है। संस्कृति की जड़ें अपने आप उखड़ती चली जाती हैं।
यह दर्द इस कमेटी की रपट में जमकर उभरा है। लेकिन इस दर्द की दवा उसके पास नहीं है। उसने त्रिभाषा-सूत्र की वह घिसी-पिटी गोली सरकार को फिर पकड़ा दी। उसे तो रद्द होना ही था। न उस कमेटी में यह हिम्मत है और न ही इस सरकार में कि वह इस त्रिभाषा-सूत्र को कूड़े की टोकरी के हवाले करे और इसकी जगह द्विभाषा सूत्र लाए। द्विभाषा याने क्या ? पहली भाषा मातृभाषा हो। उसकी अनिवार्य पढ़ाई की सुविधा सभी बच्चों के लिए सभी प्रांतों में हो। दूसरी भाषा की पढ़ाई ऐच्छिक हो। याने जिसे हिंदी पढ़ना हो, वह हिंदी पढ़े और जिसे अंग्रेजी पढ़ना हो, वह अंग्रेजी पढ़े। जो हिंदी पढ़ेगा, वह एक अन्य भारतीय भाषा तो पढ़ेगा ही। इसके साथ एक शर्त यह हो कि भारत सरकार की नौकरियों में, शासन और प्रशासन में, अदालतों में, कानून निर्माण में कहीं भी अंग्रेजी अनिवार्य न हो। तो बताइए इस देश में कौन अंग्रेजी पढ़ेगा ? हिरण पर कौन घास लादेगा ? लोग अपने बच्चों को मार-मारकर और अपना पेट काटकर मंहगे स्कूलों में अंग्रेजी क्यों पढ़ाते हैं? क्योंकि अंग्रेजी नौकरी, पैसे, रुतबे, इज्जत, हैसियत का पर्याय बन गई है। यह ऊपर की डोर कटी कि तमिलनाडु के बच्चे अपने आप हिंदी पढ़ेंगे और हम हिंदीभाषियों के बच्चे अन्य भाषाएं उत्साहपूर्वक सीखेंगे। हिंदी किसी पर लादी न जाए लेकिन अंग्रेजी भी न लादी जाए। जैसा कि महात्मा गांधी कहते थे, आजाद भारत की संसद में अंग्रेजी बोलने पर प्रतिबंध होना चाहिए। यदि अंग्रेजी का दबदबा हट जाए और देश में अपनी भाषाओं का चलन बढ़ जाए तो देश की एकता तो सुदृढ़ होगी ही, हमारे नौजवानों में मौलिकता बढ़ेगी और वे कालेज स्तर पर पहुंचकर अपने आपको अंग्रेजी के संसार तक सीमित नहीं रखेंगे बल्कि अंग्रेजी के साथ कई अन्य समृद्ध विदेशी भाषाओं में भी पारंगत हो सकेंगे। भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनाने का महामार्ग यही है।
दुर्गेश गुप्त राज says
वैदिक जी का इस व्याख्यात्मक आलेख के लिए हृदय से आभार।
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