आज मैं लखनऊ में हूं। यहां आने का मुख्य कारण था, ‘हिंदी में हस्ताक्षर’ अभियान का उद्घाटन करना। यह उद्घाटन उप्र के राज्यपाल श्री राम नाइकजी और मुझे करना था लेकिन नाइकजी को राष्ट्रपति से मिलने अचानक दिल्ली जाना पड़ा। फिर भी नाइकजी ने फोन पर मेरा स्वागत किया और कहा कि आप राजभवन जाइए और आप ही उदघाटन कर दीजिए। उन्होंने पुरानी मित्रता तो निभाई ही, हिंदी के प्रति उनका आग्रह भी सिद्ध हुआ। यह अभियान चलाया है, श्री ललितकांत पांडे ने। पिछले एक साल में वे लगभग दो लाख लोगों से यह संकल्प करवा चुके हैं कि वे अपने हस्ताक्षर हिंदी में ही करेंगे। इनमें से कई लोग ऐसे हैं, जो अब तक अपने दस्तखत सिर्फ अंग्रेजी में ही करते रहे हैं।
उन्होंने भी बैंकों में, कानूनी दस्तावेजों में और सर्वत्र अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी से बदलवाकर हिंदी में करवा दिए हैं। मेरा संकल्प है कि देश के कम से कम दस करोड़ लोगों के दस्तखत अंग्रेजी से स्वभाषाओं में करवाने हैं। सिर्फ हिंदी में नहीं, अपनी-अपनी भाषाओं में भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत ने बेंगलूरु में चार साल पहले आयोजित संघ के वृहत प्रतिनिधि सम्मेलन में मेरा नाम लेकर इस आंदोलन का समर्थन किया था। ललित पांडे ने आज सैकड़ों लोगों का एक जुलूस लखनऊ से नैमिषारण्य धाम (80 कि.मी.) तक आयोजित किया है।
दर्जनों बसों और कारों में लोग नारे लगाते हुए लखनऊ शहर से सीतापुर की तरफ जा रहे हैं। रास्ते में जगह-जगह स्वागत और भाषण हो रहे हैं। शीघ्र ही इस हस्ताक्षर अभियान की शाखाएं उप्र के हर जिले में खुलनेवाली हैं। यह हस्ताक्षर अभियान स्वभाषा आंदोलन की बस शुरुआत है। अपने हस्ताक्षर अपनी भाषा में करनेवालों के दिल में अपना भाषा-प्रेम प्रतिदिन प्रकट होगा। इसके बाद सड़क पर नामपटों से अंग्रेजी को हटाने, पढ़ाई में उसे एच्छिक बनाने, संसद, अदालत और राजकाज में अपनी भाषाएं चलाने के बड़े आंदोलन होंगे। आज जब हिंदी में हस्ताक्षर की टोपियां लगाकर सैकड़ों लोग लखनऊ के बाजारों में नारे लगाते चल रहे थे तो मुझे डाॅ. लोहिया, विनोबा भावे और गुरु गोलवलकरजी के जमाने की याद ताजा हो गई। 1947 में हमें राजनीतिक आजादी तो मिल गई लेकिन भाषायी गुलामी से छुटकारा नहीं मिला। अब हम सब उसके लिए भी तैयार हो जाएं।
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