राष्ट्रीय सहारा, 20 जून 2020: चीन के साथ भारत अब कैसा बर्ताव करे, इस सवाल पर भारत की जनता बड़ी असमंजस में हैं। भारतीय सैनिकों के शवों को जैसे ही उनके घरों पर पहुंचाया जा रहा है, उन्हें टीवी चैनलों पर देखकर करोड़ों भारतीयों का खून खौल रहा है लेकिन दूसरी तरफ वे यह भी देख रहे हैं कि सरकार के किसी नेता ने चीन के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला है। हां, प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री ने हमारे जवानों की शहादत पर दुख प्रकट किया है और कहा है कि उनकी कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी।
इस दुखद अवसर पर घटिया राजनीति भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। कांग्रेस के नेता प्रधानमंत्री पर सीधा प्रहार कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि मोदीजी कहां छिपे हुए हैं ? वे कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं ? इस सवाल के उठते ही प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों की बैठक ही सैनिकों को श्रद्धांजलि से शुरु की और उनकी बहादुरी का गुणगान किया। अब राहुल गांधी ने पूछा है कि मोदीजी बताएं कि उनके सैनिक चीनियों से लड़ने के लिए खाली हाथ कैसे चले गए ? राहुल यह जानना भूल गए कि चीनी सैनिकों के हाथ में भी हथियार नहीं थे। वे भी खाली हाथ ही हमारे फौजियों से भिड़े थे। दोनों तरफ के फौजियों ने डंडों, सरियों, कटीले तारों से लड़ाई की। राहुल को जिस जानकार ने पट्टी पढ़ाई, उसे पता ही नहीं होगा कि 1996 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके अनुसार दोनों देशों के सैनिक वास्तविक नियंत्रण रेखा के दो किमी तक के क्षेत्र में जब भी जाएंगे, कोई हथियार उनके पास नहीं होगा।
इस दुखद घटना को घटे अब तीन दिन पूरे हो रहे हैं लेकिन अभी तक इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं चला है कि दोनों सैनिकों के बीच हाथापाई किस बात को लेकर हुई ? चीन कहता है कि भारतीय सैनिक उसकी सीमा में घुसकर तोड़-फोड़ करने लगे थे और हमारे प्रवक्ता का कहना है कि चीनी सैनिक भारतीय सीमा में घुसकर दादागीरी कर रहे थे। हमारी सरकार ने पहले बताया कि हमारे तीन सैनिक मारे गए लेकिन रात को पता चला कि तीन नहीं, वे 20 थे। चीन के कितने सैनिक मरे, इसके बारे में प्रामाणिक जानकारी अभी तक सामने नहीं आई है। चीन के बड़बोले अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कहा कि चीन नहीं बताएगा कि उसके कितने फौजी मरे। अपुष्ट सूत्रों से पता चला कि 40 चीनी सैनिक मारे गए और कई घायल भी हुए। भारत ने जितने फौजी खोए, उससे दुगुने चीन ने खोए। इस खबर ने भारतीयों के घावों पर मरहम जरुर लगाया।
आश्चर्य यह है कि भारत और चीन, दोनों की सरकारें इस मामले पर बहुत संयम का परिचय दे रही हैं बल्कि मैं यह कहूं तो गलत नहीं होगा कि दोनों सरकारें दबी जुबान से बोल रही हैं। भारत के विदेश मंत्री ने चीन के विदेश मंत्री से फोन पर बात की और उसके बाद दोनों ने एक-दूसरे के सैनिकों को वास्तविक नियंत्रण रेखा के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार ठहराया लेकिन दोनों ने कहा कि इस मामले को तूल नहीं देना है। इस मामले को शांतिपूर्वक हल करना है। यहां एक अन्य तथ्य पर भी ध्यान देना जरुरी है। जिस रात यह हत्याकांड हुआ, उसके कुछ घंटे बाद ही दोनों देशों के फौजी अफसर सुबह 7.30 बजे बैठकर आपस में बात करते रहे।
इससे आप क्या नतीजा निकालते हैं ? इससे क्या यह अंदाज नहीं लगता कि दोनों तरफ के फौजियों में यह भिड़ंत अचानक हो गई और दोनों देशों के नेताओं को इसकी खबर बाद में लगी होगी। यदि यह अनुमान सत्य है तो फिर भारत सरकार का अभी तक का जो रवैया है, वह काफी संयमपूर्ण है। लेकिन यदि ऐसा है तो मुझे आश्चर्य है कि नरेंद्र मोदी ने उसी दिन (16 जून) चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग से फोन पर बात क्यों नहीं की ? यदि वे अपनी मित्र को सारे तथ्य बताते तो हो सकता है कि वे अपने फौजियों की गलती स्वीकार करते और उस पर पश्चाताप भी व्यक्त करते।
ऐसा नहीं हुआ, यह चिंता का विषय है। जाहिर है कि विपक्ष अब 56 इंच के सीनेवाली सरकार की आलोचना करेगा। चीन की गद्दारी, दुष्टता, अहंकार, मित्र-द्रोह, महत्वाकांक्षा आदि के अनगिनत किस्से उठाएं जाएंगे और लोग मांग करेंगे कि चीन से बदला लिया जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि चीन को सबक सिखाया जाए। कोई छोटा-मोटा युद्ध भी हो जाए तो हो जाए। अब भारत 1962 के मुकाबले बहुत अधिक समर्थ है। वह चीन को अपनी हरकत का मजा चखा सकता है।
मैं सोचता हूं कि यह दृष्टिकोण अतिवादी है। सबसे पहले भारत सरकार को अपने कूटनीतिक-स्त्रोतों से पता करना चाहिए कि गालवान घाटी की घटना क्या चीन के शीर्ष नेताओं के इशारों पर हुई है ? यदि ऐसा हुआ है तो फिर भारत को चीन के प्रति अपनी नीति में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। चीन के साथ अपने हर प्रकार के संबंधों पर पुनर्विचार करना होगा। सबसे पहले उसके लगभग 90 बिलियन डाॅलर के व्यापार को तेजी से घटाना होगा, उसके 26 बिलियन डाॅलर के विनियोग को निरस्त करना होगा, तिब्बत, हांगकांग, ताइवान और सिंक्यांग के उइगर मुसलमानों के मुद्दों को फिर से जीवंत बनाना होगा, भारत को उन सब क्षेत्रीय संगठनों में एस.सी.ओ., ब्रिक्स और आर.आई.सी.- जिनका चीन भी सदस्य है, प्रखरता से चीन-विरोधी रवैया अपनाना होगा, यदि चीन अरुणाचल को खुद का बताता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग, इनर मंगोलिया को आजाद करवाने का मोर्चा क्यों नहीं खोल दें, यदि चीन अरुणाचलियों को वीज़ा नहीं देता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग और इनर मंगोलिया के हान चीनियों को वीज़ा देना बंद क्यों न कर दें ? ‘रेशम महापथ’ की चीनी महत्वाकांक्षी योजना से हम अपने पड़ौसी देशों को बाहर रहने के लिए प्रेरित क्यों न करे ? हम दलाई लामा को चीन की छाती पर फिर से सवार क्यों न कर दे। चीन इस समय एशिया का सबसे बड़ा महाजन देश है। यदि भारत उसका आर्थिक टेंटुआ कसवा दे तो उसकी अकड़ अपने आप ढीली पड़ जाएगी।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं व
कई बार चीन की यात्रा कर चुके हैं)
Leave a Reply