सर्वोच्च न्यायालय ने भारत की जेलों पर काफी आंसू बहाये हैं। अब उसने राज्य सरकारों को दो हफ्तों का समय दिया है, यह बताने के लिए कि जेलों की दशा सुधारने के लिए उनकी योजना क्या है। 2016 में देश की सबसे बड़ी अदालत ने राज्य सरकारों से कहा था कि वे 31 मार्च 2017 तक अपनी सुधार योजनाएं पेश करें। साल भर गुजर गया लेकिन एक राज्य या एक भी केंद्र-प्रशासित क्षेत्र ने अदालत के निर्देश पर ध्यान नहीं दिया। अब यदि दो हफ्तों में उनका जवाब नहीं आया तो अदालत मानहानि की सजा देगी लेकिन सवाल यह है कि वह सजा किसे देगी? वह सजा देगी, जेलों के मुखिया पुलिस महानिदेशकों को। राज्यों के इन महानिदेशकों के हाथ में कौन से अधिकार हैं ? उनके पास न कोई बजट है और न ही पर्याप्त कर्मचारी हैं कि वे जेलों की दुर्दशा दूर कर सकें।
अदालत को चाहिए कि यह जिम्मेदारी वह राज्यों के जेलमंत्रियों या मुख्यमंत्रियों पर डालें। यदि पुलिस महानिदेशक जेल-सुधारों के कुछ सुझाव दे भी दें तो भी उन्हें लागू तो सरकार ही करेगी। अदालत का कहना है कि भारत की 1300 जेलों में जितने कैदी होने चाहिए, उससे डेढ़े ठुंसे रहते हैं। कई जेलों में कैदियों की संख्या 6 गुना ज्यादा है। हमारी जेलों में कैदी लोग जानवरों की तरह ठूंस दिए जाते हैं। मैं खुद पंजाब के पटियाला, इंदौर ओर दिल्ली की जेलों में रहा हूं लेकिन एक राजनैतिक कैदी की हैसियत से। नेताओं की जैसी सेवा और देखभाल जेल में होती है, उनके घरों में भी नहीं होती होगी। इसीलिए उन्हें परवाह नहीं होती कि साधारण कैदी मरे तो मरे। साधारण कैदियों के राशन, दवाई, मेहनताने में से भी अफसर कुछ हिस्सा चट कर जाते हैं। कई जेलों में उन्हें बदबूदार अस्वच्छ खाना दिया जाता है लेकिन मालदार और रसूखदार कैदी जेल में भी पूरे ठाठ-बाट से रहते हैं। जेलों में कैदियों के रहने का इंतजाम ठीक करना जरुरी तो है लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि उन्हें मनुष्यों की तरह जिंदा रहने की सुविधा दी जाए।
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