काबुल में हुए 25 राष्ट्रों के सम्मेलन में अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान के बारे में बड़ी महत्वपूर्ण घोषणा की है। उन्होंने कहा है कि वे तालिबानी संगठन को एक राजनीतिक दल के रुप में मान्यता देने को तैयार हैं। अर्थात तालिबान चाहे तो एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर आगामी चुनाव लड़ सकते हैं (और काबुल में अपनी सरकार भी बना सकते हैं)। गनी के इस शांति-प्रस्ताव का भारत ने स्वागत किया है और अमेरिका को भी इसमें शायद कोई आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि अमेरिका तो तालिबान से पहले ही सीधा संवाद चला रहा था।
तालिबान की समस्या यह है कि वे सीधे अमेरिका से बात करना चाहते हैं और किसी से नहीं, क्योंकि वे मानते हैं कि काबुल में 1978 के बाद जितनी भी सरकारें बनीं, वे या तो रुस या अमेरिका की कठपुतलियां थीं या उनके तार विदेशों से जुड़े हुए थे। सिर्फ तालिबानी शासन पूर्णरुपेण स्वदेशी या अफगान था। अभी भी वे गनी की सरकार को विदेशी कठपुतली ही मानते हैं। इस समय तालिबान के लड़ाकों की संख्या लगभग 60 हजार है। अफगानिस्तान के 14 जिलों पर उनका पूरा कब्जा है। काबुल के अलावा, सभी बड़े शहरों में उनका ही बोलबाला है। 263 जिलों में उनकी स्पष्ट उपस्थिति है। सिर्फ 122 जिलों में अफगान सरकार का शासन है। आये दिन तालिबानी हमलों में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। 2002 से अब तक 11 हजार अमेरिकी सैनिक और 28 हजार अफगान नागरिक मारे जा चुके हैं। अफगान अर्थ-व्यवस्था का हाल खस्ता है। डोनाल्ड ट्रंप की अमेरिकी सरकार ने तालिबान से लड़ने की घोषणा की है लेकिन उसे कोई खास सफलता नहीं मिल रही है। तालिबान के मुखिया मुल्ला उमर का 2013 में निधन हो गया। उसके बाद उनके उत्तराधिकारी अख्तर मोहम्मद मंसूर को अमेरिकियों ने मार गिराया।
अब मौलवी हिबतुल्लाह अखुंडजादे उनके मुखिया हैं। तालिबान के बारे में यह गलतफहमी फैली हुई है कि वे कट्टर इस्लामी हैं और वे पाकिस्तान के मोहरे हैं। पिछले 20 वर्षों में कई तालिबान नेताओं से मेरी काबुल, पेशावर और न्यूयार्क में काफी खुली बातचीत हुई है। मैंने पाया कि वे इतने उग्र राष्ट्रवादी हैं कि वे पाकिस्तान तो क्या, अमेरिका और रुस-जैसे राष्ट्रों की भी जी-हुजूरी नहीं कर सकते। पठानों के इस उग्र राष्ट्रवाद ने ही तीन बार ब्रिटिश साम्राज्य और आखिरी बार सोवियत साम्राज्य के दांत खट्टे कर दिए। अमेरिका का भी उन्होंने इसीलिए दम फुला रखा है। तालिबान का इस्लाम, अरबी इस्लाम कम, पठानी इस्लाम ज्यादा है। भारत के नेता और हमारे अफसर यदि तालिबान की इन बारीकियों को समझते होते तो वे ही अफगानिस्तान में शांति के मसीहा बने होते।
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