भारत की राजनीति अब एक खतरनाक मोड़ पर आ गई है। यों तो हम भारत को लोकतंत्र कहते हैं और ऊपर से वह वैसा दिखाई भी पड़ता है। यहां कभी फौजी तख्ता-पलट नहीं हुआ, कभी संविधान रद्द नहीं हुआ और कभी चुनाव टाले नहीं गए लेकिन ये सब दिखाने के दांत हैं। जहां तक खाने के दांतों का सवाल है, भारतीय लोकतंत्र के हाथी का मुंह खोखला हो चुका है। उसमें दांत तो क्या, डेंचर भी नहीं है। क्या आज भारत में एक भी पार्टी ऐसी है, जो दावा कर सके कि वह लोकतांत्रिक है ? लगभग सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। हर पार्टी का अध्यक्ष उसका एकछत्र मालिक है। उसकी नियुक्ति सर्वसम्मति से होती है। नाम मात्र के लिए भी उसका कोई विरोधी उम्मीदवार नहीं होता। एक मालिक और बाकी सब उसके नौकर ! सभी प्रांतीय पार्टियां सामंती-पद्धति पर चलती हैं। कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई चाचा-भतीजा पार्टी है, कोई जीजा-साली पार्टी है, कोई सहेली-सहेली पार्टी है।
अखिल भारतीय पार्टियों का भी यही हाल है। भाजपा भाई-भाई पार्टी बन गई है और कांग्रेस तो मां-बेटा पार्टी है ही ! इन पार्टियों में क्या आंतरिक चुनाव सचमुच होते हैं ? इनमें किसी मुद्दे पर क्या खुलकर आंतरिक बहस और असहमति होती है ? क्या हम कभी किसी अर्न्तद्वंद बात सुनते हैं ? क्या ये पार्टियां किसी विचार, किसी सिद्धांत, किसी आदर्श से प्रेरित होती हैं ? इन पार्टियों में कोई अंतर नहीं है। सभी पार्टियां एक-जैसी हो गई हैं। सबका लक्ष्य एक ही है। वोट और नोट ! जब पार्टियां एकायामी हो गई हैं तो भारतीय राजनीति बहुआयामी कैसे रह सकती हैं ? भारतीय राजनीति से द्वंद्वात्मकता की समाप्ति भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। यह खतरा 1975 में आपात्काल के रुप में प्रगट हुआ लेकिन तब बहुआयामी विरोधी दल और जयप्रकाश नारायण मौजूद थे। आज कौनसा विरोधी दल है ? जैसा सत्तारुढ़ दल, वैसे ही विरेाधी दल ! दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए किसान आंदोलन, दलित आंदोलन, व्यापारी आंदोलन अपने आप उठ रहे हैं। यदि आज के विरोधी दल 2019 में सत्तारुढ़ हो गए तो वे भी क्या कर लेंगे ? वे भी वोट और नोट के झांझ पीटेंगे और रुखसत हो जाएंगे। हमारा लोकतंत्र झींकता रह जाएगा।
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