नवभारत टाइम्स, 13 फरवरी 2020: दिल्ली के चुनाव परिणाम को हम सिर्फ डेढ़ करोड़ मतदाताओं वाले एक छोटे-से राज्य के चुनाव-परिणाम मान बैठेंगे तो हम गलती करेंगे। दिल्ली, दिल्ली है। भारत का हृदय है, वह छोटा-सा प्रदेश भर नहीं है। दिल्ली में जो भी होता है, वह कई गुना बड़ा होकर सारे देश को दिखाई पड़ता है। इसीलिए दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने अपने अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, मंत्रियों, मुख्यिमंत्रियों और सैकड़ों सांसदों और विधायकों को मैदान में डटा दिया था। फिर भी आप पार्टी प्रचंड बहुमत से लौट गई, भाजपा की पांच सीटें बढ़ीं लेकिन कांग्रेस अपने पुराने शून्य पर अटकी रही।
यह स्थिति कई प्रश्नों को जन्म देती है। इसका पहला प्रश्न तो यह है कि क्या देश में भाजपा का विकल्प खड़ा हो सकता है ? पिछले छह साल में देश में एक भी दल या नेता ऐसा नहीं उभरा, जो भाजपा को चुनौती दे सके। यह ठीक है कि अब भी देश के 12 राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें हैं और पिछले दो सालों में भाजपा ने लगभग आधा दर्जन राज्यों में अपनी सरकारें खोई हैं, इसके बावजूद केंद्र में आज भी भाजपा मजबूत है और राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी आज भी दनदना रहे हैं। मोदी को चुनौती देने की कोशिश ममता बेनर्जी और शरद पवार जैसे नेता कर सकते हैं लेकिन इनके मुकाबले हिंदी क्षेत्र के किसी नेता की अखिल भारतीय स्वीकार्यता अधिक सहज हो सकती है ? यह काम क्या अब अरविंद केजरीवाल कर सकते हैं?
लेकिन दिल्ली के अलावा आप पार्टी और केजरीवाल का अस्तित्व कहां है ? पंजाब में आप पार्टी ने उल्लेखनीय प्रगति की थी लेकिन वह प्रगति पार्टी के आंतरिक विवादों का शिकार हो चुकी है। अगले चार साल में या तो आप पार्टी सारे देश में फैल जाए या प्रमुख प्रांतीय पार्टियों से गठबंधन कर ले तो ही वह भाजपा को चुनौती दे सकती है। ये दोनों संभावनाएं ठोस रुप ले लें, यह आसान नहीं है।
आप पार्टी का अब तक का इतिहास बताता है कि देश के जिन प्रमुख बौद्धिकों, समाजसेवियों और छोटे-मोटे नेताओं ने इस पार्टी के प्रारंभ में प्रमुख भूमिका निभाई थी, उनमें से लगभग सबके सब बाहर हो चुके हैं। यह वैसा ही है, जैसा कि नरेंद्र मोदी के उत्थान के साथ ही भाजपा के सारे वरिष्ठ और वजनदार नेता भाजपा की फुटपाथ पर पहुंच गए हैं। केजरीवाल यदि इस कमी को सुधार सके, अपने पुराने साथियों से संवाद कायम करे और हर प्रांत के अपने से भी वजनदार व्यक्तित्वों को अपने साथ शामिल कर सके तो कोई आश्चर्य नहीं है कि सभी प्रांतों में आप पार्टी अपने पांवों पर खड़ी हो जाए। उसकी वर्तमान प्रचंड विजय अन्य पार्टियों के असंतुष्ट नेताओं के लिए भी शरण-स्थल बन सकती है। किसी भी लोकतंत्र में बड़ा नेता वही बनता है, जो अपने से भी बड़े-बड़े लोगों को अपने साथ लेकर चल सकता है।
जहां तक अन्य प्रांतीय पार्टियों के साथ गठबंधन का सवाल है, लगभग सभी प्रांतीय पार्टियां आप पार्टी से ज्यादा पुरानी हैं। उनके नेता भी केजरीवाल के मुकाबले ज्यादा अनुभवी, ज्यादा प्रसिद्ध और बुजुर्ग हैं। वे अपनी लगाम आसानी से केजरीवाल को क्यों देने लगे ? केजरीवाल के पास कोई ऐसी सुनिश्चित विचारधारा भी नहीं है, जिसका वे अनुसरण करें। इस चुनाव में केजरीवाल और आप पार्टी ने बड़ी चतुराई दिखाई। उसने कोई ऐसा तेवर नहीं दिखाया कि वह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के जाल में फंसाई जा सके। चुनाव के दौरान इस ध्रुवीकरण का धुंआ सारी दिल्ली में फैल गया लेकिन इस ध्रुवीकरण के धुआंकरण में आप पार्टी फंसी ही नहीं। उसने शाहीन बागों का समर्थन जरुर किया लेकिन इस अदा से किया कि उसका हिंदू वोट बैंक सुरक्षित रहा। उसने रामभक्तों के सामने हनुमानभक्त की मुद्रा धारण कर ली। संसद में उसने बालाकोट, कश्मीर पूर्ण विलय और तीन तलाक का समर्थन कर दिया। दिल्ली के मतदाताओं के दिल में उसकी छवि एक ऐसी पार्टी की बनी, जिसका काम सिर्फ दिल्ली की जनता की सेवा करना है।
यह कम बड़ी बात नहीं कि कांग्रेस और भाजपा ने आप पार्टी की खाल खींचने में जरा-भी कोताही नहीं की। सब मर्यादाएं भंग कर दीं, जैसा कि प्यार और युद्ध में होता है लेकिन आप पार्टी के नेताओं ने संयम रखा। लोकतंत्र की लाज बची। सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ भाजपा के शीर्ष नेताओं ने अरविंद केजरीवाल को बधाइयों और शुभकामनाओं से लाद दिया। आप पार्टी और केजरीवाल अब एक ऐसी छवि लेकर उभरे हैं, जो विचारधाराओं को लांघने पर बनती है। केजरीवाल को आप न दक्षिणपंथी कह सकते हैं, न वामपंथी ! यहां अब यह सवाल भी ध्यान देने लायक बन गया है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा का महत्व कितना रह गया है ? आप पार्टी को जिताया है, शिक्षा, इलाज, बिजली, पानी, मुफ्त मेट्रो-यात्रा और तीर्थ-यात्रा आदि जैसे सर्वहितकारी कामों ने ! इसीलिए दिल्ली में भाजपा के 62 लाख सदस्यों में से सिर्फ 35 लाख ने भाजपा को वोट दिए हैं। कर्म की राजनीति ने धर्म की राजनीति को पछाड़ दिया। भाजपा ने भी अपने घोषणा-पत्र में आप पार्टी से भी ज्यादा लोक-लुभावन फिसलपट्टियां लगाईं थीं लेकिन दिल्ली की जनता फिर भी फिसली नहीं ।
इस समय देश परेशान है, बेरोजगारी से, मंहगाई से और केंद्र सरकार गदगद है, राम मंदिर से, कश्मीर-विलय से, तीन तलाक को तलाक से लेकिन दिल्ली में भाजपा की यह हार उसे झारखंड और महाराष्ट्र से भी ज्यादा गहरा सबक सिखाएगी। इस हार का सबसे बड़ा सबक यही है कि आप मन की बात जरुर करें लेकिन काम की बात के बिना काम नहीं चलेगा। केजरीवाल के मन की बात क्या है, किसी को पता नहीं, लेकिन उसने काम की बात करके लोगों का मन जीत लिया। यदि यह ठीक नहीं है तो बताइए 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटों पर हारनेवाली आप पार्टी अब विधानसभा की 63 सीटों पर कैसे जीत गई ? इसका अर्थ यह भी है कि देश की जनता अगले आम चुनाव में दिल्ली की जनता की तरह पेश आ सकती है। दिल्ली का चुनाव कहीं देश के बदलते हुए रुझान का आईना तो नहीं है ?
लेकिन भाजपा के लिए खुशी की बात यही है कि जो उसके लिए अखिल भारतीय चुनौती बन सकती थी, वह कांग्रेस पार्टी इस दिल्ली चुनाव में दोबारा शून्य साबित हुई। उसे सीट तो एक भी नहीं मिली उसके वोट भी आधे रह गए। मैं सोचता हूं कि कांग्रेस पार्टी के इतिहास का यह स्वर्णिम क्षण है। यह मौका है, जब इस महान पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन की आवाज जोरों से उठे। सोनिया से निराश होने पर राहुल को लाया गया, राहुल से निराश होने पर प्रियंका को लाया गया। अब कौन है, जिसे लाया जाएगा ? आज भी देश के हर गांव, हर शहर, हर जिले में कांग्रेस पार्टी की जड़े थोड़ी-बहुत हरी हैं। यदि उन्हें नए नेतृत्व और नई नीतियों से सींचा जा सके तो देश में लोकतंत्र को स्वस्थ और मजबूत बनाया जा सकता है।
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