कर्नाटक की सिद्धरमैया सरकार ने जबर्दस्त दांव मार दिया है। उसके मंत्रिमंडल ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास कर दिया है कि कर्नाटक के लिंगायत और वीरशैव संप्रदायों को हिंदू धर्म से अलग स्वतंत्र धर्म माना जाए जैसे कि बौद्ध और जैन धर्मों को माना जाता है। लिंगायत और वीरशैव लोगों की जनसंख्या कर्नाटक में 19 प्रतिशत है। इन समुदायों ने कर्नाटक में सबसे अधिक मुख्यमंत्री दिए हैं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया करुबा जाति के हैं लेकिन यह दावं उन्होंने इसलिए मारा है कि उन्हें थोक वोट का यह खजाना हाथ लग जाए। उनकी यह मांग तभी पूरी होगी, जबकि केंद्र उस पर अपनी मुहर लगा दे।
मई में होने वाले प्रादेशिक चुनाव में कांग्रेस इसी को सबसे बड़ा मुद्दा बनाने वाली है। भला, केंद्र सरकार इस मांग को क्यों मानने लगी ? भाजपा के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बी.एस. येदुरप्पा स्वयं लिंगायत हैं। वे लिंगायत वोट बैंक पर ही सबसे ज्यादा निर्भर है। विधान सभा की 225 सीटों में से 100 सीटों पर लिंगायतों का प्रभाव है। 2013 में कर्नाटक में भाजपा की हार का एक कारण यह भी था कि येदुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी। अब यदि केंद्र लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा नहीं देगा तो इस नकार को लिंगायत-विरोधी रुप दिया जाएगा और यदि वह उन्हें यह दर्जा दे देगा तो उसे कांग्रेस अपने पक्ष में भुनाएगी। कांग्रेस-जैसी पार्टी, जो धर्मनिरपेक्षता की माला जपते नहीं थकती है, क्या उसके लिए यह उचित है कि वह वोट कबाड़ने के लिए धर्म को अपना औजार बना ले? इससे यह संकेत भी मिलता है कि सिद्धरमैया हर कीमत पर अपनी हार को टालना चाहते हैं।
यों भी सिद्धरमैया का यह पैंतरा देश भर में कांग्रेस को बहुत मंहगा पड़ेगा। देश का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय कांग्रेस-विरोधी बन जाएगा। यदि यह मामला अदालत में चला गया तो जैसे 1966 में स्वामिनारायण संप्रदाय ओर 1995 में रामकृष्ण मिशन को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू धर्म से पृथक मान्यता देने से इंकार कर दिया था, वैसे ही वह इस मांग को भी रद्द कर देगा ? किसे पता है कि कर्नाटक के हिंदू मतदाता भी इस मांग पर भड़क उठे ?
Leave a Reply