कश्मीर में लगे प्रतिबंधों पर यूरोपीय संघ का रवैया थोड़ा नरम पड़ा है। चीन, तुर्की और मलेशिया- जैसे देशों को छोड़ दें तो दुनिया के लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रों ने अगस्त में किए गए कश्मीर के पूर्ण विलय को भारत का आंतरिक मामला माना है लेकिन अनेक प्रमुख देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने मानव अधिकारों के हनन का सवाल लगातार उठाया है। भारत के भी कई नेताओं और संगठनों ने कश्मीरी जनता पर लगे प्रतिबंधों के खिलाफ लगातार आवाज उठाई है। भारत सरकार ने इस बार 25 देशों के राजनयिकों को कश्मीर भेजकर अपनी आंखों से वहां की स्थिति देखने का इंतजाम किया था। उनके द्वारा भेजी गई रपट के आधार पर ही यूरोपीय संघ की आधिकारिक प्रवक्ता वर्जिनी हेनरिकसन ने कश्मीर की स्थिति में सुधार पर थोड़ा संतोष जाहिर किया है लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि बाकी प्रतिबंधों को भी जल्दी से जल्दी हटाया जाए। वास्तव में ये प्रतिबंध इसलिए लगाए गए थे कि इन्हें नहीं लगाया जाता तो इस बात की आशंका थी कि धारा 370 खत्म करने का डटकर विरोध होता, हिंसा और तोड़फोड़ होती और उसके फलस्वरुप कश्मीर की घाटी खून से लाल हो जाती। सैकड़ों लोग मारे जाते। इस दृष्टि से प्रतिबंध लगाना ठीक ही रहा। हमारी सरकार में अब तक इतना साहस आ जाना चाहिए कि वह कश्मीर में एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल को भी जाने दे। पत्रकारों को भी पूरी छूट मिलनी चाहिए। प्रतिबंधों के कारण कश्मीरी लोगों को बहुत नुकसान भुगतना पड़ा है। सरकार उसकी भरपाई करने की कोशिश भी कर रही है। लेकिन अब कश्मीर के पुराने मुख्यमंत्रियों तथा कुछ अन्य नेताओं को रिहा करने में देरी ठीक नहीं है। उन पर नए आरोप लगाकर उन्हें कैद में बनाए रखना उचित नहीं है। यदि सरकार का यह दावा सही है कि कश्मीर की स्थिति अब सहज होती जा रही है तो उसे सारे प्रतिबंध वहां से तुरंत हटा लेना चाहिए। अभी ठंड इतनी है कि कोई बड़ा जन-आंदोलन भी नहीं चल सकता है। सरकार देर करेगी तो उसे ही यह कदम भारी पड़ सकता है। यदि तुर्की राष्ट्रपति रिसेप तय्यब एर्दोगन ने पाकिस्तानी संसद में दिए अपने भाषण में भारत की भर्त्सना की है तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि पुर्तगाल के राष्ट्रपति मार्सेलो रिवोले डिसूजा का नरेंद्र मोदी ने भारत में भव्य स्वागत किया है, जो अगले साल यूरोपीय संघ के अध्यक्ष बननेवाले हैं।
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