दैनिक भास्कर, 1 दिसंबर 2019: महाराष्ट्र की राजनीति आग का दरिया सिद्ध हुई। सभी दलों ने इस दरिया में तैरने की कोशिश की लेकिन साबुत बचा न कोई। कुर्सी सभी को मिली। पहले पक्ष को और अब विपक्ष को लेकिन दोनों कुर्सी पर नहीं, कुर्सी उन पर बैठ गई। कुर्सी की खातिर उन्होंने अपने सिद्धांतों, अपनी नीतियों, अपनी परंपराओं और अपनी मर्यादाओं का भी उल्लंघन कर दिया। यदि भाजपा के नेता देवेंद्र फडनवीस रातों-रात मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं लेते और विपक्ष के नेता बनकर विधानसभा में बैठते तो महाराष्ट्र की जनता की सहानुभूति उनके साथ हो जाती और ज्यों ही शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस की सरकार डांवाडोल होती, उन्हें सरकार बनाने का मौका ससम्मान मिलता या नया चुनाव होता तो वे शायद स्पष्ट बहुमत ही प्राप्त करते।
लेकिन शिव सेना के नेता अजित पवार के साथ हाथ मिलाकर उन्होंने अपने हाथ काट लिए। जिस राकांपा को उनकी पार्टी ‘राष्ट्रवादी करप्ट कांग्रेस’ कहती थी, उसी को उन्होंने गले लगा लिया। उन्होंने उसी अजित पवार से हाथ मिलाया जिस पर उनकी पार्टी सिंचाई परियोजना में 70 हजार करोड़ के घोटाले का आरोप लगाती रही है।
ज्यों ही दोनों ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली, इस घोटाले से अजित पवार को बिल्कुल मुक्त कर दिया गया। आश्चर्य की बात है कि गुप्तचर सेवा अपनी जेब में होने के बावजूद फडनवीस यह पता नहीं कर पाए कि राकांपा के विधायक अजित पवार के साथ आएंगे या शरद पवार के साथ जाएंगे ? यदि वे अजित पवार के साथ आ भी जाते और फडनवीस की सरकार चल पड़ती तो भी भाजपा के माथे पर वैसा ही काला टीका लग जाता, जैसा कि अभी शिवसेना,राकांपा और कांग्रेस के बेमेल विवाह पर लगा हुआ है। जो काम शिवसेना कर रही थी, वही काम भाजपा ने कर दिखाया।
क्या यह संभव है कि यह सारी जोड़-तोड़ अकेले फडनवीस ने ही की हो ? क्या इसका पता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को नहीं रहा होगा। ऐसा होना असंभव है। रातों-रात राष्ट्रपति शासन का हटना और बड़े सबेरे शपथ विधि हो जाना, क्या केंद्र सरकार की सांठ—गांठ के बिना संभव है ? इतना बड़ा जुआं खेलते वक्त भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने पक्की जांच पड़ताल क्यों नहीं की ? मंत्रिमंडल की स्वीकृति के बिना ही राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया और सुबह-सुबह हथेली में सरसो उगा ली गई। इस संवैधानिक नौटंकी से आखिर किसकी बदनामी नहीं हुई ? जो चालाकी गोवा, अरुणाचल और मेघालय में सफल हो गई थी, वह महाराष्ट्र में मुंह के बल आ गिरी है। फड़नवीस को बधाई देनेवाले भाजपा के शीर्ष नेता अब किस मुंह से आदर्श बघारेंगे ?
महाराष्ट्र के इस सारे घटनाक्रम में भारत की न्यायपालिका की भूमिका बहुुत ही प्रशंसनीय रही है। उसने 24 घंटे में ही विधानसभा का सत्र बुलाने और शक्ति परीक्षण का आदेश देकर राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार पर रोक लगा दी थी। यदि वह फडनवीस और अजित पवार को अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए एक सप्ताह या अधिक का समय दे देती तो हम महाराष्ट्र में साम, दाम, दण्ड, भेद का नंगा नाच देखते। कोई भी पार्टी किसी से पीछे नहीं रहती। लोकतंत्र का यह सबसे घिनोना रुप हम मुंबई में देखते। मुंबई में आयाराम और गयाराम की ताजा फिल्म चल पड़ती। लेकिन यहां मूल प्रश्न यह है कि संसद और विधानसभा का संचालन जनता के चुने हुए प्रतिनिधि को स्वयं करना चाहिए या अदालतों के जजों को ? जनता के चुने हुए 288 प्रतिनिधियों पर अदालत के 3 जज भारी पड़ गए। किसी भी संसदीय लोकतंत्र के लिए क्या इसे उत्तम कहा जा सकता है ?
महाराष्ट्र के इस प्रपंच से अब एक नया संदेश उभर रहा है। वह यह कि नरेंद्र मोदी सरकार के विरुद्ध देश के सारे राजनीतिक दल एकजुट हो सकते हैं, चाहे उनके आपसी मतभेद कुछ भी हों। यदि शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी जैसी कांग्रेस की जानी दुश्मन पार्टियां उससे हाथ मिला सकती हैं तो मोदी सरकार के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने में देश की सभी पार्टियां उसी तरह से एकजुट हो सकती हैं, जैसे कि आपात्काल के बाद वे इंदिरा गांधी सरकार के विरुद्ध हो गई थीं। दूसरे शब्दों में महाराष्ट्र का यह घटनाचक्र अखिल भारतीय राजनीति के एक नये युग का सूत्रपात कर सकता है।
महाराष्ट्र देश का महाप्रांत है, यह अरुणाचल, मेघालय और गोवा नहीं है। भाजपा के हाथ से इसके निकल जाने का अर्थ काफी गहरा है। 21 महीने के अंदर ही भाजपा देश के चार बड़े राज्यों में सत्ता गंवा चुकी है। उस समय देश की 72 प्रतिशत आबादी पर उसका शासन था। अब महाराष्ट्र के हाथ से निकल जाने पर उसका शासन मुश्किल से देश की 45 प्रतिशत आबादी पर ही रह गया है।
जो अभी महाराष्ट्र में हुआ वही 2018 में कर्नाटक में हुआ। इस तरह का नाटक हम बिहार और उत्तरप्रदेश में भी पहले देख चुके हैं। भारत के संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की नियुक्ति क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल ही करते हैं। स्पष्ट बहुमत की स्थिति में उनके द्वारा ऐसा करना सामान्य-सी बात होती है। लेकिन अस्पष्ट बहुमत की स्थिति में इस अधिकार का प्रयोग हमेशा न्यायोचित ढंग से नहीं होता। इसका एक ही उपाय है, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति और राज्यपाल करें, इसकी बजाय संसद और विधानसभाओं का बहुमत ही करे। संविधान में इस आशय के संशोधन की आज बहुत जरुरत है। 1985 में जब दल—बदल विरोधी विधेयक पारित हुआ था, तब भी मैंने अपने संपादकीय (न.भा.टा) में लिखा था कि दल—बदल पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए। जिस विधायक और सांसद को अपना दल बदलना हो, पहले उसे इस्तीफा देना चाहिए और दल—बदलकर फिर से चुनाव लड़ना चाहिए।
महाराष्ट्र, कर्नाटक और गोवा जैसी अस्पष्ट बहुमत की सरकारों को शपथ दिलाने की बजाय मेरे दिमाग में एक नया सुझाव आया है। संविधान में संशोधन करके इस सुझाव को लागू किया जा सकता है। यदि किसी चुनाव में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत न मिले तो जिन दो पार्टियों को सबसे ज्यादा सीटें मिली हों उन्हें अगले दो-तीन दिन में ही दुबारा चुनाव लड़ने के लिए मौका दिया जाए। जब सिर्फ दो पार्टियां लड़ेगी तो उनमें से एक का स्पष्ट बहुमत आकर ही रहेगा। ऐसा होने पर हमारी राजनीति अधिक स्वच्छ और नैतिक हो सकेगी।
चुनाव में जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है तो जो गठबंधन—सरकारें बनती हैं, वे प्राय: अपने पांच साल शायद ही पूरे कर पाती हैं। इनके घटकों में निरंतर तनाव बना रहता है। वे न तो अपने घोषणा—पत्रों पर अमल कर पाती हैं और न ही जनता की सेवा पर अपना ध्यान लगा पाती हैं। उनके लिए कुर्सी ही ब्रह्म होती है, जनता की सेवा तो माया ही बनी रहती है। यदि भारत को सबल और स्वस्थ लोकतंत्र बनाना है तो हमें अपनी संसदीय व्यवस्था में तुरंत कई बुनियादी संवैधानिक संशोधन करने होंगे। यदि ये संशोधन हो जाते तो अपने एतिहासिक ‘संविधान दिवस’ पर संविधान की मजाक उड़ने से बच जाती।
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