प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह सउदी अरब यात्रा कई दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पहली बात तो यह है कि मोदी एक ऐसी पार्टी के प्रधानमंत्री हैं, जो हिंदुत्ववादी मानी जाती है, जिसे लोग मूलतः मुस्लिम-विरोधी मानते हैं। ऐसी पार्टी का नेता कहां जा रहा है ? ऐसे देश में जा रहा है, जो सारी दुनिया के मुसलमानों का सिरमौर है। उस देश ने अपना सर्वोच्च सम्मान भी मोदी को दिया था। यह क्या है ? यह मामूली घटना नहीं है। यह दो अतिवादों का मिलन है। यह दो देशों की घनिष्टता भर नहीं है। यह दो परस्पर विचारधाराओं और जीवन-पद्धतियों का सजीव संवाद है। यह पूरे विश्व के लिए एक नया संवाद है। इसका असर भारत के मुसलमानों पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। जिस सउदी अरब ने भारत के स्पष्ट समर्थन में कभी मुंह तक नहीं खोला और जो मौके-ब-मौके भारत का कई मुद्दों पर खुलकर विरोध भी करता रहा, आज कश्मीर के सवाल पर वह पूरी तरह भारत के साथ है।
इस कारण पाकिस्तान का मनोबल तो गिरा ही, सिर्फ मलेशिया और तुर्की के अलावा पाकिस्तान का किसी भी इस्लामी देश ने समर्थन नहीं किया। अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन पर भी सउदी रवैए का गहरा प्रभाव पड़ा है। सउदी अरब के इस अंतरराष्ट्रीय वित्तीय विनियोग सम्मेलन में भारत का स्थान सर्वोच्च था। भारत के प्रधानमंत्री को ही उदघाटन-भाषण के लिए आमंत्रित किया गया। कई महत्वपूर्ण देशों ने इस सम्मेलन की उपेक्षा की लेकिन भारत और सउदी अरब एक-दूसरे के बहुत नजदीक आ गए। अब सउदी अरब भारत में लगभग 100 अरब डालर की पूंजी लगाना चाहता है। इस समय भारत-सउदी व्यापार 27.5 अरब डालर का है। भारत का आयात 22 अरब का है और निर्यात सिर्फ 5.5 अरब डालर का है। अब वह निर्यात बढ़ेगा। भारत के 22 लाख नागरिक सउदी में कार्यरत हैं। सउदी अरब के युवराज मुहम्मद बिन सलमान, जिस तरह से पोंगापंथी इस्लाम से पिंड छुड़ा रहे हैं और इस्लाम को एक नए और आधुनिक सांचे में ढाल रहे हैं, भारत की ओर से उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। वे कुल आठ देशों के साथ ‘सामरिक सहकार’ के समझौते कर रहे हैं, उनमें भारत प्रमुख है। क्या यह कम बड़ी बात है ? कोई आश्चर्य नहीं कि सउदी अरब का यह नीतिगत परिवर्तन भारत के प्रति अन्य इस्लामी देशों का आकर्षण भी बढ़ाएगा।
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