पुणें में चल रहे ‘बिम्सटेक’ देशों के संयुक्त फौजी अभ्यास का नेपाल ने बहिष्कार कर दिया है। काठमांडो में अभी-अभी संपन्न हुए बिम्सटेक सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने उत्साहपूर्वक भाग लिया और नेपाल के नेताओं से द्विपक्षीय सार्थक संवाद भी किया, इसके बावजूद नेपाल की यह हिम्मत पड़ गई कि वह संयुक्त अभ्यास में भाग न ले? साल में दो बार भारत और नेपाल की सेना के कुछ जवान संयुक्त अभ्यास करते ही है। फिर भी बिम्सटेक के इस संयुक्त अभ्यास से बचने का कारण क्या है ? क्या नेपाल चीन को खुश करना चाहता है ? वह चीन के साथ शीघ्र ही संयुक्त सैन्य अभ्यास करने वाला है। पिछले साल भी उसने किया था। क्या वह चीन को यह बताना चाहता है कि बिम्सटेक में वह भारत की अगुवाई को नहीं मानता है? यदि यही अभ्यास भारत की बजाय बांग्लादेश या श्रीलंका में होता तो नेपाल को शायद कोई आपत्ति नहीं होती। यह अभ्यास तो आतंकवाद का सामना करने के लिए है, जिसका सभी बिम्सटेक देशों ने समर्थन किया था।
इस भारत-विरोधी कदम का कारण नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने यह बताया है कि उनके विरोधी दलों और खबरतंत्र ने इस सैन्य-अभ्यास का विरोध किया था। ओली क्यों डर गए, इस विरोध से? उनकी संसद में उनका दो-तिहाई बहुमत है। उन्होंने डर कर अपनी ही छवि धूमिल की है। यह तर्क भी बिल्कुल बोदा है कि चीन के साथ होने वाले सैन्य-अभ्यास में तो 20-25 नेपाली सैनिक भाग लेते हैं लेकिन भारत में 300 सैनिक भेजना पड़ते हैं। वे भारत में कम भी भेज सकते थे। इसके अलावा चीन में दूरियां हजारों किलोमीटरों में है, जो कि भारत में सैकड़ों में ही काम हो जाता है। असलियत तो यह है कि 2015 में मोदी सरकार ने नेपाल की नाकेबंदी करके इतने गहरे घाव दिए थे कि उन्हें कुरेद-कुरेद ही ओली सरकार प्रचंड बहुमत से जीती है। वह मोदी सरकार से बातें तो मीठी-मीठी करती है लेकिन वह नेपाल को पाकिस्तान की तरह चीन की गोद में बिठाने के लिए बेताब है। इस समय चीन काठमांडो और ल्हासा के बीच रेल लाइन डाल रहा है। नेपाल के लिए उसने अपने चार बंदरगाह खोल दिए हैं और नेपाल में भारत से भी ज्यादा, 8 बिलियन डालर खपा दिए हैं। लेकिन नेपाल को पाकिस्तान से सबक लेना चाहिए। इमरान खान सरकार अब चीनी पैसों की बरसात का असली मतलब समझने में जुट गई है।
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