आज कश्मीर में प्रतिबंध लगे पूरा डेढ़ महीना हो गया है। सरकार कहती है कि कश्मीर के हालात ठीक-ठाक हैं। कोई पत्थरबाजी नहीं है। कोई लाठी या गोलीबार नहीं है। न लोग मर रहे हैं और न घायल हो रहे हैं। मरीज़ों के इलाज के लिए अस्पताल खुले हुए हैं। हजारों आपरेशन हुए हैं। लोगों को राशन वगैरह ठीक से मिलता रहे, उसके लिए दुकानें खुली रहती हैं लेकिन मैंने अपने कश्मीरी दोस्तों और नेताओं से लेंडलाइन टेलिफोन पर बात की है। कुछ जेल से छूटे हुए कार्यकर्ता भी दिल्ली और गुड़गांव आकर मुझसे मिले हैं। वे जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल उल्टा है। उनका कहना है कि लोग बेहद तकलीफ में हैं। सड़कों पर कर्फ्यू सा लगा हुआ है। स्कूल-कालेज बंद हैं। सैलानियों ने कश्मीर आना लगभग बंद कर दिया है। गरीब लोगों के पास रोजमर्रा की चीजें खरीदने के लिए पैसा नहीं है। कोई किसी से बात नहीं कर पा रहा है। इंटरनेट और मोबाइल फोन बंद हैं।
अखबार और टीवी चैनल भी पाबंदियों के शिकार हैं। शुक्रवार को कई मस्जिदों में नमाज़ भी नहीं पढ़ने दी जाती है, क्योंकि सरकार को डर है कि कहीं भीड़ भड़क कर हिंसा पर उतारु न हो जाए। दिल्ली से जाने वाले कई नेताओं को श्रीनगर हवाई अड्डे से ही वापस कर दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई याचिकाओं के जवाब में कहा है कि सरकार वहां जल्दी से जल्दी हालात ठीक करने के लिए कदम उठाए। लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों पर मांग की जा रही है कि कश्मीरियों को अभिव्यक्ति की आजादी शीघ्रातिशीघ्र दी जाए। मुझे लगता है कि इस मांग पर अमल होना शायद अगले हफ्ते से शुरु हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बार भारत-पाक वाग्युद्ध हो ले, उसके बाद भारत सरकार जरुर कुछ नरम पड़ेगी। पाकिस्तान की फौज और सरकार को इस बात पर खुश होना चाहिए कि कश्मीरियों पर से प्रतिबंध उठाने की मांग वे जितने जोरों से कर रहे हैं, उससे ज्यादा जोरों से भारत में हो रही है। फिर भी यह प्रश्न उठता है कि मोदी सरकार ने इतने कड़े प्रतिबंध क्यों लगाए हैं ? क्योंकि वह कश्मीर में खून की नदियां बहते हुए नहीं देखना चाहती। कश्मीरी लोगों को सोचना चाहिए कि उनकी जुबान ज्यादा कीमती है या उनकी जान ? यही सवाल सबसे बड़ा है। मैं तो समझता हूं कि कश्मीरी लोगों को अपना क्रोध या गुस्सा प्रकट करने की इजाजत वैसे ही मिलनी चाहिए, जैसी कि चीन ने हांगकांग के लोगों को दे रखी है। अहिंसक प्रदर्शन करने का पवित्र अधिकार सबको है। अब सही मौका है, जबकि जेल में बंद कश्मीरी नेताओं से सरकार मध्यस्थों के जरिए बात करना शुरु करे।
बिपिन चन्द्र जोशी says
मैं आपके कथन से सहमत नहीं हूँ। धारा 370 और 35ए को हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर की वादियों में चमन धीरे-धीरे लौट रहा है। धारा 370 एक ऐसे विशाल सूखे वृक्ष की तरह थी जो न तो खुद हरी-भरी हो सकती थी और न अपने आसपास हरियाली पनपने दे रही थी। इसका गिर जाना ही कश्मीरी आवाम के लिए अच्छा था। जब सूखा पेड़ गिरता है तो धरती कुछ क्षण को हिलती है लेकिन उसके कुछ समय बाद धरती हरी-भरी हो उठती है। हैरान-परेशान वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अराजकता, वैमनस्य फैलाने का सपना पाले रहते हैं। हम अपनी सेना, अर्द्धसैनिक बलों और कश्मीर पुलिस शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने ऐसे समय में साहस, धैर्य और बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए स्थिति को सम्हाला जिससे कश्मीरी आवाम को भारत सरकार के निर्णय पर भरोसा जाग रहा है। ऐसे समय में समाज के चिन्तकों, बुद्धिजीवियों, सुधारकों आदि का दायित्व बनता है कि सरकार की मंशा पर शक न करके आवाम में संदेश दें कि जल्दी ही सब कुछ अच्छा हो जायेगा। आलोचना, समीक्षा, शिकायत करने के लिए बहुत समय पड़ा है जैसे सत्तर साल तक करते रहे। इस समय विश्व जनमत भारत के पक्ष में है।पाकिस्तान हर मंच पर मात खा रहा है तो ऐसे वक्त में अपनी सरकार के निर्णय की आलोचना कर शत्रु देशों को मजबूती देना गलत बात है।
बिपिन चन्द्र जोशी
बंगलौर