भारत दुनिया का एकमात्र देश है, जहां मूर्ति पूजा होती है। ऐसे मूर्तिपूजक देश में यदि सरदार पटेल की ऐसी मूर्ति बने, जो दुनिया में सबसे ऊंची हो तो कोई आश्चर्य क्यों होना चाहिए? चीन में बनी भगवान बुद्ध की मूर्ति से भी पटेल की मूर्ति ऊंची है। तो क्या हमारा तर्क यह होगा कि जिस आदमी की मूर्ति जितनी ऊंची होगी, उसका कद भी उतना ही ऊंचा होगा ? इस हिसाब से पटेल तो गांधी, अब्राहम लिंकन, लेनिन, माओ और कार्ल मार्क्स से भी ऊंचे हो गए। गुरु गुड़ और चेला शक्कर! भगवान बुद्ध और महावीर भी उनसे छोटे पड़ गए। सबसे ऊंची मूर्ति बनाने के पीछे असली मानसिकता क्या है? अपने नाम को सबसे ऊंचा करना। अपने अहंकार को पटेल के पर्दे में छिपाना। इसमें शक नहीं कि पटेल के प्रति कांग्रेस का रवैया बेहद असंतोषजनक रहा है लेकिन पटेल ही क्या, सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और सावरकर आदि के प्रति भी कांग्रेस के रवैए में काफी खामियां रही हैं। ये लोग तो अंत में कांग्रेसी भी नहीं थे।
मोदी को इनमें से कोई भी याद क्यों नहीं आया ? गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने पटेल की मूर्ति लगाने की घोषणा की थी, जो कि राजनीतिक दृष्टि से ठीक कदम था लेकिन 3000 करोड़ रु. अब इस मूर्ति पर खर्च करने की तुक क्या थी? ये रुपए कहां गए ? ज्यादातर चीन को गए, जिसके आक्रामक इरादों के बारे में नेहरु को पटेल ने कठोर पत्र भेजे थे। इस मूर्ति का माल तो विदेशी है ही, इसका नाम भी विदेशी है- स्टेच्यू आफ यूनिटी। क्या कोई सरदार पटेल का सच्चा भक्त ऐसा विदेशी नाम रख सकता है? वह पटेलवादी हो ही नहीं सकता। वह फर्जी पटेलवादी है, वह खुद यह सिद्ध कर रहा है। आज भारत को ‘एकता’ चाहिए या रोजगार चाहिए या शिक्षा चाहिए या स्वास्थ्य चाहिए या भोजन चाहिए ? इन सब जरुरतों का पेट आप ‘भाइयों-बहनों’ भाषणों से भरते रहिए और पटेल के सपनों को मूर्त रुप देने की बजाय उनकी पत्थर की मूर्ति खड़ी कर दीजिए। 3 हजार करोड़ रु. में देश के छह सौ जिलों में अस्पताल खुल सकते थे लेकिन एक पत्थर के पुतले पर पैसा बहाकर अपना नाम ऊंचा करना ज्यादा जरुरी था।
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