तीन तलाक के विधेयक को कानून का रुप देने के लिए सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिया। लोग पूछ रहे हैं कि सरकार को ऐसी क्या जल्दी पड़ी हुई थी कि उसने अध्यादेश जारी कर दिया ? इसी सवाल के साथ लगे हाथ लोग यह भी पूछ रहे हैं कि संघ प्रमुख मोहन भागवत को हिंदुत्व की विचारधारा को पतली करने की जरुरत अभी ही क्यों आन पड़ी ? इसी मौके पर अयोध्या के राम मंदिर पर उन्होंने दो ग्रंथों का विमोचन क्यों किया ? क्या वजह है कि इन ग्रंथों के विमोचन के अवसर पर किसी विद्वान की बजाय भागवत के साथ गृहमंत्री राजनाथ सिंह और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ही बोले ? इन सब अटपटे कामों की व्याख्या लोग यों कर रहे हैं कि यह दिसंबर में होने वाले राज्यों के चुनाव की तैयारी है और इसका फायदा भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उठाना चाहती है।
यह आरोप सही भी हो तो इसमें बुराई क्या है ? भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है। उसे चुनाव जीतना है। उसके लिए उसे जो भी हथकंडा अपनाना पड़ेगा, वह अपनाएगी। यह ठीक है कि विकास का मुद्दा दरी के नीचे सरक गया है और भाजपा को अब कुछ गर्मागर्म मुद्दों की तलाश है लेकिन यहां मैं इतना कह दूं कि नरेंद्र मोदी को विकास के मुद्दे पर जीत नहीं मिली थी। उस जीत के पीछे कांग्रेस का भ्रष्टाचार था और नेतृत्व की अकर्मण्यता थी। यदि इस समय मोदी के पास कोई मुद्दा नहीं है तो विपक्ष के पास कौन सा मुद्दा है? सच्चाई तो यह है कि भारत की आज की राजनीति बिल्कुल दीवालिया है। देश में न तो कोई नेता है और न ही नीति है। हां, एक-दूसरे पर भद्दे से भद्दे आरेाप जरुर उछाले जा रहे हैं। राहुल गांधी अब मोदी के लिए उन्हीं शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं (गली-गली में चोर), जो 1986 में उनके पूज्य पिताजी राजीव गांधी के लिए किए जाते थे। राहुल को मसखरा राजकुमार (क्लॉउन प्रिंस) कहा जा रहा है। राहुल को विरोधी लोग ‘पप्पू’ कह रहे हैं तो मोदी को ‘गप्पू’ कह रहे हैं। सबसे बड़े विरोधी दल के नेता को लोग नादान बता रहे हैं तो प्रधानमंत्री को गप्पें हांकने वाला कह रहे हैं। भारत की जनता क्या करे ? वह हतप्रभ है। उसे पल्ले नहीं पड़ रहा है कि 2019 में वह किसे जिताए ? वह पप्पू और गप्पू के बीच झूल रही है।
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