राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने यह बिल्कुल सही कहा है कि संघ का यह काम नहीं कि वह कांग्रेस-मुक्त भारत-जैसी बात कहे। वह तो सभी को साथ रखकर देश की सेवा में विश्वास करता है। मोहनजी के इस बयान पर कई भाजपा कार्यकर्त्ताओं और संघ के स्वयंसेवकों ने मुझसे कहा कि कहीं मोहन भागवत को यह तो नहीं लग रहा है कि भारत मोदीमुक्त होने वाला है? गुजरात तो मोदीमुक्त होते-होते बच गया लेकिन भारत बचेगा कि नहीं?
विरोधी दलों के नेता आजकल जिस बुरी तरह से पिल पड़े हैं, गठबंधन बनाने के लिए याने मोदीमुक्त भारत के लिए, उसे देखते हुए भागवतजी का यह कहना काफी प्रासंगिक लगता है कि अब मुक्त-वुक्त का जुमला छोड़िए, युक्त-युक्त की बात कीजिए। उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत के जुमले को शुद्ध राजनैतिक जुमला कहकर रद्द कर दिया। नरेंद्र मोदी ने जब यह जुमला उछाला था, तभी मैंने लिखा था कि यह लोकतंत्र की भावना के विपरीत है। इसमें से तानाशाही की गंध आती है। लोकतंत्र का रथ एक पहिए पर नहीं चलता। वैसे इंदिरा गांधी के भयंकर अनुभव के बाद भारत में कोई नेता तानाशाह बनने की अब हिमाकत नहीं कर सकता। हां, इस कथन में से अहंकार फुफकारता हुआ जरुर दिखाई पड़ रहा था।
पिछले चार साल के काम-काज ने उस समय उभरे इन संकतों को अब सही सिद्ध कर दिया है। आम नागरिकों से ज्यादा भाजपा और संघ के नेता और कार्यकर्ता परेशान हैं। यदि विरोधी दल टुकड़ों में या सब मिलकर एक साथ हो गए तो क्या मोदी-शाह की जोड़ी भाजपा को फिर से सत्तारुढ़ कर सकेगी ? यह विचार भी कहीं-कहीं उछल रहा है कि क्या यह संभव है कि 2019 के चुनाव के पहले भाजपा मोदी मुक्त हो जाए?
भाजपा में मोदी से कहीं अधिक अनुभवी और बुद्धिमान नेता हैं, जो कई विरोधी दलों को अपने साथ जोड़ सकते हैं। भाजपा और संघ के कार्यकर्ता भी नए नेतृत्व के साथ उत्साहपूर्वक काम कर सकते हैं। लेकिन यह सब ख्याली पुलाव है। यह होना नहीं है। न भारत को कांग्रेसमुक्त होना है और न ही भाजपा को मोदीमुक्त होना है। लेकिन कांग्रेस और मोदी पार्टी, दोनों को आत्मचिंतन की जरुरत है। ये दोनों अखिल भारतीय पार्टियां अंदर-बाहर स्वस्थ होतीं तो कई क्षेत्रीय पार्टियों का अब तक इनमें विलय हो जाता। भारत दो-दलीय लोकतंत्र की तरफ आगे बढ़ता लेकिन डर यही है कि 2019 में देश की छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां कहीं अखिल भारतीय सिंहासन पर ही न जम जाएं।
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