राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 25 वें ‘राष्ट्रोदय समारोह’ में हिंदुत्व के बारे में कुछ ऐसी नई और बुनियादी बातें कही हैं, जिन पर गंभीरता से विचार किया जाए तो भारतीय राजनीति को सांप्रदायिकता से छुटकारा मिल सकता है। सांप्रदायिकता भी दोनों। मुस्लिम सांप्रदायिकता और हिंदू सांप्रदायिकता ! उन्होंने तीन लाख स्वयंसेवकों की उपस्थिति में कहा कि जो भी भारत में रहता है, वह हिंदू है। उसे अपने आप को हिंदू ही समझना चाहिए। जो भी भारतमाता को अपनी माता मानता है, वह हिंदू ही है। हिंदू की इतनी सरल, स्पष्ट और उदार परिभाषा यदि संघ प्रमुख कर रहे हैं तो मैं मानता हूं कि हिंदू की इससे अधिक असांप्रदायिक परिभाषा कोई और हो ही नहीं सकती। इसके अनुसार भारतीय मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी भी हिंदू ही होंगे, क्योंकि इन समुदायों के किसी भी जिम्मेदार आदमी को हमने यह कहते नहीं सुना कि वह भारत माता की संतान नहीं है।
मोहनजी ने यह भी कहा है कि कट्टर हिंदू का अर्थ है- अत्यंत उदार हिंदू। वह हिंदू जो सत्य, अहिंसा और विविधता में विश्वास करता है। हिंदू शब्द हमें ईरानियों, पठानों और अरबों ने दिया है। इस विदेशी शब्द का शाब्दिक अर्थ यही है कि सिंधु नदी के इस पार रहने वाले सब लोग हिंदू ही हैं। यदि इस बात को हम मान लें तो फिर अपने और पराए का भेदभाव अपने आप खत्म हो जाता है। भारतीयों का अपने लिए अपना शब्द तो ‘आर्य’ है। यदि हम इसे मानें तो हमारा दायरा काफी लंबा-चौड़ा हो जाता है। तब ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान भी अपने हो जाते हैं। दक्षिण एशिया के अन्य देश तो उसमें हैं हीं। यदि हम किसी भी भारतीय नागरिक पर यह व्यापक नामकरण लागू करें तो उसकी पहचान में से मजहब, जाति, भाषा, पहनावा, खान-पान आदि सब गौण हो जाता है। कुल मिलाकर यह समग्र विविधता ही उसकी पहचान बन जाती है। किसी एक अलग आंशिक पहचान को पकड़कर बैठक जाना ही सांप्रदायिकता है और समग्र पहचान को अपनी पहचान समझना सच्ची राष्ट्रवादिता है।
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