रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने पश्चिमी राष्ट्रों को खुली चेतावनी दे दी है कि वे यूक्रेन के मामले में टांग अड़ाने की कोशिश नहीं करें, वरना एक राज्य के तौर पर यूक्रेन का नामो-निशान भी मिट सकता है। उन्होंने इतनी सख्त प्रतिक्रिया यूक्रेन की इस मांग पर की है कि नाटो राष्ट्र उसके वायु-मार्गों को निषिद्ध घोषित करें याने रूस-जैसा कोई राष्ट्र यूक्रेन पर हवाई हमला न कर सके। पूतिन का यह सख्त रवैया पश्चिमी देशों को धमकाने में कारगर होगा। वे पहले खुद ही कह चुके हैं कि वे यूरोप में युद्ध नहीं चाहते।
यूक्रेन के लगभग आधा दर्जन शहरों पर रूस का कब्जा हो चुका है। यूरोप और यूक्रेन के सबसे बड़े परमाणु संयंत्र भी रूस के नियंत्रण में आ गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि राजधानी कीव भी अब जल्दी ही यूक्रेन के हाथ से निकल जाए। यदि कीव पर रूस का कब्जा हो गया तो यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की या तो भाग खड़े होंगे या मार दिए जाएंगे, जैसे कि 1979 में काबुल में रूसी फौजों के घुसते ही प्रधानमंत्री हफीजुल्लाह अमीन की हत्या हो गई थी।
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन को इस बात का बिल्कुल भी अंदाज नहीं रहा होगा कि झेलेंस्की की सरकार और यूक्रेनी लोग उनके हमले का इतना डटकर मुकाबला कर लेंगे। जहां तक नाटो राष्ट्रों का सवाल है, उन्होंने झेलेंस्की को पानी पर तो चढ़ाया लेकिन उन्हें डूबने से बचाने के लिए वे आगे नहीं आए। पूतिन ने तो परमाणु-युद्ध तक की भी धमकी दे डाली। नाटो राष्ट्रों और अमेरिका ने अपेन बगलबच्चे यूक्रेन की रक्षा करना तो दूर, साफ़-साफ़ कह दिया कि वे यूरोप में युद्ध नहीं चाहते। खुद झेलेंस्की ने नाटो के इस नखदंतहीन रवैए की आलोचना की है।
अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने रूस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है लेकिन रूसी फौजों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने अपना एक भी सैनिक यूक्रेन नहीं भेजा है। अभी तक रूस द्वारा यूरोपीय राष्ट्रों को बेचे जानेवाले तेल और गैस पर प्रतिबंध नहीं लगा है, क्योंकि उसके लगने पर उनकी अर्थ-व्यवस्था घुटनों के बल बैठ जाएगी। अमेरिका और उसके समर्थक राष्ट्रों ने सुरक्षा परिषद, संयुक्तराष्ट्र महासभा और मानव अधिकार परिषद में भी रूस के विरुद्ध मतदान किया है लेकिन इसका ज़रा-सा भी प्रभाव रूस पर नहीं पड़ा है।
रूस ने कुछ घंटों के लिए युद्ध-विराम की घोषणा इस दृष्टि से जरुर की थी कि भारत-जैस मित्र-देशों के छात्र ओर जो भी यूक्रेनी नागरिक बाहर निकलना चाहें, निकल सकें लेकिन उस पर भी पूरी तरह अमल नहीं हो सका। पश्चिमी राष्ट्रों का जबानी जमा-खर्च जारी है लेकिन यहां यह संतोष का विषय है कि रूस और यूक्रेन के अधिकारियों के बीच दो बार संवाद हो चुका है और तीसरा संवाद भी होनेवाला है। यदि तीसरे संवाद के दौरान दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता हो जाए तो रूस और यूक्रेन ही नहीं, यूरोप और सारी दुनिया की चिंता दूर हो जाएगी।
झेलेंस्की और पूतिन के बीच समझौता होना कठिन नहीं है। यदि यूक्रेन की सार्वभौम और स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत बनी रहे और वह पश्चिमी राष्ट्रों का मोहरा न बनने का वादा करे तो यह संकट समाप्त हो सकता है। यूक्रेन पर हुए रूसी हमले का कोई भी विवेकशील व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता लेकिन यह तथ्य भी विचारणीय है कि कोई भी राष्ट्र अपनी सीमा पर किसी ऐसे पड़ौसी राष्ट्र को कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जो किसी प्रतिद्वंदी राष्ट्र का मोहरा बनने को तैयार हो। यदि यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाता तो वह रूस के विरुद्ध वही भूमिका निभाता, जो भारत के विरुद्ध पाकिस्तान निभाता रहा है। क्या भारत यह बर्दाश्त कर सकता है कि नेपाल या भूटान, चीन के किसी सैन्य-गुट में शामिल हो जाएं? यदि वे चीन से अपने रिश्ते अच्छे बनाना चाहते हैं, तो जरुर बनाएं लेकिन वे यह न भूलें कि वे सदियों से भारत के बृहद परिवार के सदस्य हैं। यही बात यूक्रेन पर भी लागू होती है।
यूक्रेन ने स्वतंत्र होते ही पिछले तीन दशकों में पश्चिमी यूरोप के नाटो राष्ट्रों और अमेरिका से अपने व्यापारिक, राजनीतिक और सामरिक संबंधों में कई नए कदम बढ़ाए। लेकिन यूक्रेन के नाटो में शामिल होने के आग्रह ने पूतिन को इस सैनिक कार्रवाई के लिए मजबूर किया। वैसे सोवियत रूस के कई पुराने प्रांत और उसके वारसा पेक्ट के कुछ सदस्य भी नाटो में शामिल हुए हैं लेकिन यूक्रेन के भौगोलिक, सामरिक और जनसंख्या के चरित्र की कुछ ऐसी अनिवार्यताएं हैं, जो रूसी सुरक्षा के लिए खतरनाक हो सकती थीं। इसके अलावा रूस को डर यह भी था कि यूक्रेन की भूमि पर अमेरिकी प्रक्षेपास्त्रों और परमाणु आयुधों को भी तैनात किया जा सकता था।
अब जबकि यूक्रेन पर रूस का हमला हो रहा है, सारा परिदृश्य ही बदल गया है। पश्चिमी राष्ट्र यूक्रेन को छोटे-मोटे हथियार सप्लाय करते रह सकते हैं लेकिन वे किसी भी हालत में अब वहां अपने प्रक्षेपास्त्र तैनात नहीं कर पाएंगे। लेकिन यूक्रेनी लोगों ने जिस बहादुरी से रूस का मुकाबला किया है, रूस द्वारा यूक्रेन पर अपनी हुकूमत चलाना आसान नहीं होगा। यह ठीक है कि यूक्रेन के लगभग 20 प्रतिशत रूसी मूल के लोग और जो दोनबास-क्षेत्र में रहते हैं, वे लोग पूतिन को महानायक मानते रहेंगे लेकिन यूक्रेन के आम लोग उन्हें इस बात के लिए कभी क्षमा नहीं करेंगे कि उन्होंने यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए और दोनेत्सक व लुहांस्क नामक दो नए देश खड़े कर दिए।
पूतिन ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि यह हमला इतना लंबा खिंच जाएगा। इसके पहले पिछले 7-8 दशक में अमेरिका और सोवियत संघ ने जब भी इस तरह की कार्रवाइयां की हैं, उनका निपटारा तुरंत हुआ है। चाहे वह हंगेरी हो, चेकोस्लावाकिया हो, अफगानिस्तान हो, एराक हो या लीब्या हो। यदि यह मामला कुछ दिन लंबा खिंच गया और पश्चिमी प्रतिबंध सचमुच कड़े हो गए तो रूस की अर्थव्यवस्था और पूतिन की छवि, दोनों विकृत हुए बिना नहीं रहेंगी। अमेरिका और नाटो की प्रतिष्ठा तो पैंदे में बैठ ही गई है। ऐसी स्थिति में चीन की चमक बढ़ेगी और वह प्रामाणिक विश्व-शक्ति बनकर उभरेगा। यदि तीन दशक बाद फिर से शीत-युद्ध शुरु हो गया तो चीन उसका जबर्दस्त स्तंभ बनकर उभरेगा। यह असाधारण तथ्य है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की तरह चीन ने भी स्वयं को निष्पक्ष रखा है। उसने किसी के भी पक्ष में वोट नहीं दिया। चीन और रूस आजकल हमजोली बन गए हैं। भारत इस समय दुनिया का एक मात्र ऐसा महत्वपूर्ण देश है, जिसका रूस और अमेरिका, दोनों से घनिष्ट संबंध हैं। जिस मुस्तैदी से वह अपने छात्रों को वापस ला रहा है, वही मुस्तैदी यदि वह रूस और अमेरिका के बीच मध्यस्थता करने में दिखाता तो उसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाते।
Leave a Reply