कितनी विडंबना है कि सबरीमाला मंदिर में केरल की जिन दो महिलाओं ने अंदर जाकर पूजा करने की हिम्मत दिखाई, उनके साथ निकृष्ट कोटि का बरताव किया जा रहा है। ये दो महिलाएं हैं, कनकदुर्गा और बिंदु! इन दोनों को किसी सरकारी आश्रय गृह में रहना पड़ रहा है, वह भी पुलिस सुरक्षा में। कनकदुर्गा के सुसराल और पीहर, दोनों ने उसका बहिष्कार कर दिया है। वह अपने सुसराल यानी अपने घर में गई तो उसे उसके बच्चे से नहीं मिलने दिया गया। इतना ही नहीं, उसकी 78 वर्षीय सास ने उसे इतना मारा कि उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल से ठीक होकर जब वह अपने पीहर गई तो उसके भाई ने उसे निकाल बाहर किया।
उसका भाई कनकदुर्गा की तरफ से माफियां मांग रहा है, क्योंकि उसकी 42 वर्षीय बहन ने एक पाप कर दिया है। उसका पाप क्या था? वह ये कि वह रजस्वला उम्र की महिला होते हुए भी सबरीमाला मंदिर के अंदर चली गई, जबकि दस से 50 वर्ष तक की औरतों का वहां प्रवेश निषेध है। इस प्रवेश निषेध को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया है। इसके बावजूद केरल में राजनीति का इतनी घृणित रुप देखने को मिल रहा है। सत्तारुढ़ मार्क्सवादी पार्टी अदालत के फैसले का समर्थन कर रही है तो भाजपा और कांग्रेस उसका विरोध कर रहे हैं। लगभग 55 लाख औरतों ने इस फैसले के समर्थन में मानव-दीवार खड़ी की थी, लेकिन अब अंधविश्वास और पाखंड में फंसे कुछ लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं।
सबरीमाला का यह मामला मुझे राम मंदिर के बारे में सोचने को मजबूर कर रहा है। हमारी मोदी सरकार अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मसले को अदालत के जरिए हल करने पर लटकी हुई है। अदालत के फैसले को केरल में वह लागू क्यों नहीं करवा देती? उसने मुंह पर पट्टी क्यों बांध रखी है? राम मंदिर के बारे में अदालत या तो पौने तीन एकड़ जमीन में मंदिर बनाने या मस्जिद बनाने या दोनों बनाने का फैसला करेगी। कोई चौथा फैसला वह कर नहीं सकती। ऐसे में क्या उस फैसले को हिंदू और मुसलमान, दोनों मान लेंगे? क्या किसी सरकार में इतना दम है कि वह इन तीनों में से किसी भी एक फैसले को लागू कर सके? बेहतर तो यह होगा कि सबरीमाला के फैसले से सरकार सबक सीखे और अयोध्या के मसले को अदालत से बाहर ले आए और तीनों मुकदमेबाज पार्टियों के बीच संवाद करवा कर इसे प्रेमपूर्वक हल करवाए।
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