श्रीलंका में आपात्काल की घोषणा के बावजूद बौद्ध-मुस्लिम मुठभेड़ जस की तस चल रही है। पिछले चार दिनों में केन्डी में रहने वाले मुसलमानों के लगभग डेढ़ सौ घर और दुकानों को आग लगा दी गई है। राष्ट्रपति मैत्रीपाल श्रीसेन ने फौज और पुलिस के जवानों को दंगों की जगह तैनात किया है लेकिन उग्रवादी बौद्धों ने केन्डी ही नहीं, सारे श्रीलंका के मुसलमानों को आतंकित कर दिया है। लगभग दो करोड़ लोगों के इस बौद्ध-राष्ट्र में लगभग 20 लाख मुसलमान रहते हें। ये तमिलभाषी हैं और व्यापार आदि करते हैं। वैसे श्रीलंका के सिंहलों के साथ मुसलमानों के संबंध वैसे कटु नहीं रहे हैं, जैसे तमिलभाषियों के रहे हैं लेकिन 2014 में अलूथगामा शहर में हुई बौद्ध-मुस्लिम मुठभेड़ ने विकराल रुप धारण कर लिया था। उग्रवादी संगठन ‘बौद्ध बल सेना’ ने एक बौद्ध ड्राइवर और एक मुस्लिम युवक के झगड़े को इतना तूल दे दिया कि दंगों में 4 लोग मारे गए और 80 घायल हो गए। दस हजार लोग उजड़ गए और मुस्लिमों की करोड़ों की संपत्तियां स्वाह हो गईं।
2015 में हुए चुनावों में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष का तमिल-हिंदुओं और मुसलमानों ने लगभग बहिष्कार कर दिया। वे एलटीटीई पर विजय पाने वाले महानायक थे लेकिन वे चुनाव हार गए। अब राष्ट्रपति श्रीसेन और प्रधानमंत्री रनिल विक्रमासिंघ के सामने उनके अस्तित्व की चुनौती खड़ी हो गई है। केन्डी में भी वही हुआ है, जो चार साल पहले अलूथगामा में हुआ था। एक बौद्ध ड्राइवर और एक मुस्लिम नौजवान की कार-दुर्घटना में झड़प हुई और कुछ दिन बाद उस बौद्ध की मौत हो गई। मुसलमान डर गए लेकिन उग्रवादी बौद्धों ने एक मुस्लिम को जिंदा जला दिया। स्वयं श्रीसेन केंडी के तेल्देनिया और दिगाना में पहुंच गए हैं और दंगों की आग को बुझा रहे हैं लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ और कई महाशक्ति राष्ट्रों ने बड़ी चिंता व्यक्त की है। यदि श्रीसेन सरकार इन दंगों पर काबू नहीं कर पाई तो पूर्व राष्ट्रपति राजपक्ष को जो सिंहल-उग्रवाद के पक्षधर हैं, फायदा तो होगा ही, श्रीसेन और विक्रमसिंह गठबंधन सरकार का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। पिछले स्थानीय चुनावों में राजपक्ष की वापसी के स्पष्ट संकेत मिल ही चुके हैं। नेताओं का भविष्य जो भी हो, यदि श्रीलंका में सांप्रदायिकता का राक्षस दुबारा सिर उठा लेगा तो भारत के इस अपने पड़ौसी राष्ट्र का भविष्य चौपट हो सकता है।
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