सर्वोच्च न्यायालय ने आज एक एतिहासिक फैसला किया है। उसने एकमत से माना है कि दिल्ली राज्य के प्रशासन-संचालन में उप-राज्यपाल का पद ध्वजमात्र है। वह प्रशासन का सर्वेसर्वा नहीं है। यह फैसला सिर्फ केजरीवाल सरकार की विजय नहीं है, यह देश के संविधान को भी स्पष्टता प्रदान करता है। केंद्र प्रशासित राज्यों या क्षेत्रों के बारे में जो धारा 239 एए है, उसकी व्याख्या अभी तक इस तरह से की जा रही थी कि इन क्षेत्रों की जनता के द्वारा चुनी हुई सरकारें सिर्फ रबर का ठप्पा बनकर रह गई थीं और केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल उन्हें अपनी निजी कंपनी की तरह चलाते रहते थे।
शीला दीक्षित जैसी धैर्यवान मुख्यमंत्री तो अपने उप-राज्यपालों से ताल-मेल बिठाकर दिल्ली का प्रशासन किसी तरह चलाती रहीं लेकिन अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया किसी दूसरी मिट्टी के बने हुए हैं। वे जन-आंदोलन की संतान हैं और वे अत्यंत अपूर्व और प्रचंड जनमत से जीते हुए नेता हैं। वे उप-राज्यपाल की दादागीरी कैसे बर्दाश्त कर सकते थे ? पहले और अब दोनों उप-राज्यपालों ने इस अत्यंत लोकप्रिय सरकार का जीना हराम कर रखा था। कभी उसे अपना मुख्य सचिव नियुक्त नहीं करने दिया, कभी अफसरों का तबादला रोक दिया, कभी फैसलों की फाइलें मंगा कर अपने पास रख लीं, कभी अफसरों को मंत्रियों की अवज्ञा करने पर जवाबतलब नहीं और कुल मिलाकर इस लोकप्रिय सरकार को अपनी कठपुतली बनाकर रख दिया। मुख्यमंत्री तथा अन्य मंत्रियों को अनशन और धरने पर बैठना पड़ा।
अब अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यपाल को राष्ट्रपति की तरह मंत्रिमंडल की सलाह और सहायता से काम करना होगा। यदि किसी मुद्दे पर मतभेद हो तो उप-राज्यपाल उस मामले को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। उप-राज्यपाल के अधिकार-क्षेत्र में दिल्ली की जमीन, कानून व्यवस्था और पुलिस भर रहेगी। शेष सभी मामलों में अब उसकी दखलंदाजी खत्म हो जाएगी। जाहिर है कि अब आप पार्टी के युवा नेता दिल्ली का नक्शा बदलने में समर्थ होंगे। दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है लेकिन इस फैसले से अब केजरीवाल की सरकार लगभग पूर्ण सरकार की तरह चलेगी।
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