सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों ने बहुत ही चिंताजनक सवाल उठा दिया है। वे बिहार में हुए बालिका-गृह के बलात्कार कांड की सुनवाई कर रहे थे। उन्होंने प्रश्न पूछा कि देश में यह क्या हो रहा है? लेफ्ट, राइट, सेंटर हर जगह दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं। हर छह घंटे में कहीं न कहीं से बलात्कार की खबर आती है। इस साल में 38,947 दुष्कर्म की घटनाएं देश में हुई हैं। अदालत की यह तकलीफ बिल्कुल सही है। देश में कोई जगह बची नहीं है, जहां बलात्कार न होता हो। क्या स्कूल, क्या कालेज, क्या अस्पताल, क्या सरकारी दफ्तर, क्या रेल, क्या बस और ये ही नहीं, मंदिर और गिरजाघर भी बलात्कार से बच नहीं पाए हैं। इन बलात्कारों को रोकने की जिम्मेदारी प्रांतीय सरकारों की जरुर है लेकिन वह सिर्फ कानूनी जिम्मेदारी है याने जब बलात्कार हो जाए, उसके बाद उनकी कार्रवाई शुरु होती है। यह ठीक है कि यदि बलात्कारियों को तुरंत फांसी पर लटका सकें तो उसके डर के मारे बलात्कार शायद कम होंगे लेकिन यहां भी वे बेबस हैं।
यदि अदालतें अपने फैसले देने में ही वर्षों लगा दें तो सरकारें क्या करेंगी ? दुनिया की कोई भी सरकार बलात्कार या व्यभिचार को होने से रोक नहीं सकती, लेकिन उसके होते रहने को जरुर रोक सकती हैं। जैसे बालिका अनाथालयों, आश्रमों, अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों, रेलों और बसों में सरकार कड़ी निगरानी और जांच का इंतजाम कर सकती हैं। सरकारी मदद से चलने वाले आश्रय-गृहों की चलताऊ रपटों से संतुष्ट होने वाली सरकारें बलात्कार और व्याभिचार को बढ़ावा देती हैं। बलात्कार को रोकने की ये सरकारी कोशिशें ऐसी हैं, जैसे हिमखंड का शिखर होता है। याने एक—तिहाई जिम्मेदारी! उस शिखर के नीचे जो दो-तिहाई हिस्सा है, उसकी जिम्मेदारी परिवार और समाज की है। बचपन से बने सुदृढ़ संस्कार ही ऐसे कुकर्मों के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी हैं। दुनिया की कोई ताकत, कोई लालच, कोई आकर्षण, कोई धमकी ऐसे व्यक्ति को डिगा नहीं सकते, जिसने ‘मातृवत् परदारेषु’ (परस्त्री माता है) का संकल्प उठा रखा है।
आज भारत पश्चिम का नकलची देश बन गया है। वह भौतिकवादी मूल्यमान अपना रहा है। देश में कोई सबल नैतिक नेतृत्व नहीं हैं। ज्यादातर साधु-संत अपनी आरती उतरवाने में ही जुटे रहते हैं। नेताओं को वोट और नोट के खेल से फुरसत नहीं है। ऐसे में हमारी सबसे बड़ी अदालत भारत में हो रहे बलात्कारों पर आंसू बहाए तो किसी को आश्चर्य क्यों होगा?
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