उजबेकिस्तान के राष्ट्रपति शौकत मिर्जियोयेव ने दिल्ली में अपने भाषण के दौरान एक अत्यंत व्यावहारिक सुझाव दिया है। उन्होंने कहा है कि अफगान-संकट का समाधान फौजी कार्रवाई से नहीं, बल्कि तालिबान से सीधी बातचीत के द्वारा होगा। यही बात पिछले हफ्ते अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारत में कही थी। इस समय अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों पर तालिबान का कब्जा है। पश्चिमी राष्ट्रों की फौजी मदद के बावजूद पिछले 40 साल से अफगानिस्तान में अराजकता फैली हुई है। इसके कारण पाकिस्तान, भारत, ईरान, उजबेकिस्तान और चीन के सिंक्यांग प्रदेश में आतंकवादी हिंसा का दौर लगातार जारी है। यह अच्छा है कि इन देशों के नेताओं को, देर से ही सही, यह बात समझ में आ रही है कि तालिबान से बात करना कितना जरुरी है।
यह गलतफहमी दूर होनी चाहिए कि तालिबान से बात हो ही नहीं सकती। जरा याद करें, 1999 की वह रात जब हमारे जहाज का अपहरण करके उसे कंधार हवाई अड्डे पर ले जाया गया था। मैं उस दिन संयुक्तराष्ट्र संघ में भाषण देकर लंदन लौटा था। प्रधानमंत्री अटलजी का फोन आया कि आप अपने अफगान संपर्कों से तुरंत बात कीजिए। मैंने कंधार के पीर गैलानी के लंदन स्थित घर में जाकर उनसे बात की। न्यूयार्क में तालिबान राजदूत मुजाहिद को फोन किया और कंधार स्थित मुल्ला उमर से संपर्क किया। कुछ और भी हुआ।
हमारा जहाज मुक्त हो गया। मैं जब भी काबुल गया, अफगान राष्ट्रपतियों, मंत्रियों और सांसदों से मिलने के अलावा मैंने तालिबान और मुजाहिदीन नेताओं से मिलने से कभी मना नहीं किया। मैंने पाया कि वे मूलतः भारत-विरोधी नहीं है। वे कट्टर अफगान राष्ट्रवादी हैं। उनमें से ज्यादातर गिलजई पठान हैं। वे पाकिस्तान की भरपूर मदद लेते हैं लेकिन मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि वे किसी भी राष्ट्र के मोहरे कभी नहीं बनेंगे। आश्चर्य की बात है कि भारत इस इलाके का सबसे बड़ा और सबसे जिम्मेदार राष्ट्र है लेकिन उसने तालिबान से सीधे बात करने की पहल कभी क्यों नहीं की ? पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भारत की इसी पहल की संभावना को पाकिस्तान के लिए गहरा खतरा बताया है। मैं सोचता हूं कि भारत सरकार यह पहल करे तो भारत और पाकिस्तान दोनों का भला होगा। अफगानिस्तान का उद्धार तो होगा ही।
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