उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन सिर्फ प्रादेशिक राजनीति तक सीमित नहीं है। यह गठबंधन इतना शक्तिशाली है कि यह राष्ट्रीय राजनीति में भी गजब का उलट-फेर कर सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि 2014 में जो स्थिति उप्र में विरोधी दलों की हुई, वही स्थिति 2019 में भाजपा की हो जाए। याने संसद की 71-72 सीटें इस गठबंधन को चली जाएं और 5-7 सीटें भाजपा के पल्ले पड़ जाएं।
यदि ऐसा हो गया या मानो 50 सीटें भी भाजपा ने उप्र में खो दी तो केंद्र में उसकी सरकार बनना आसान नहीं होगा। अब न तो कांग्रेसी भ्रष्टाचार का मुद्दा है और न कोई मोदी लहर है बल्कि अब नोटबंदी, जीएसटी, फर्जिकल स्ट्राइक, सीबीआई की नौटंकी, सवर्णों को फर्जी आरक्षण जैसे मुद्दे लोगों की जुबान पर हैं। बेरोजगारी और बेकारी बढ़ी है। इसीलिए गुजरात और गोवा जैसे प्रांतों में जैसे-तैसे भाजपा सरकारें बन पाईं और तीन हिंदी राज्यों में अच्छे काम के बावजूद भाजपा सरकारें हार गईं।
ऐसी हालत में भाजपा के लिए 200 का आंकड़ा पार करना भी मुश्किल लग रहा है। सपा और बसपा गठबंधन की प्रबल सफलता की संभावना का प्रमाण हमें गोरखपुर, फूलपुर, कैराना के संसदीय उप-चुनावों से ही मिल गया था। लखनऊ की गद्दी पर बैठते ही भाजपा के मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री अपनी खाली की गई ये दोनों सीटें हार गए, क्योंकि वहां सपा और बसपा एक हो गई थीं। अगले तीन-चार महिने में केंद्र और उप्र की सरकारें ऐसा कौनसा चमत्कार करेंगी कि वे अपनी आधी सीटें भी बचा पाएंगी ? उधर बसपा की मायावती को सपा के अखिलेश ने अपनी पत्रकार-परिषद में काफी प्राथमिकता और इज्जत दी है। ऐसा लगता है कि दोनों नेताओं में खूब पटेगी। पुरानी रंजिशें बिदा हो गईं। अखिलेश ने कहा कि अगला प्रधान मंत्री उत्तरप्रदेश का ही होगा। मायावती का चेहरा इस टिप्पणी पर गुलाब की तरह खिल गया। अखिलेश ने जातिवाद के खिलाफ शंखनाद किया और मायावती ने ‘सर्व जनहिताय’ की बात कही याने इन दोनों पार्टियों ने अपने लक्ष्यों को ऊंचा उठाया है। यह भी देखना है कि उप्र के ये नेता राम मंदिर के सवाल पर क्या रवैया अपनाते हैं।
सबसे ज्यादा कमी, जो मुझे खली वह यह कि इन दोनों नेताओं ने यह नहीं बताया कि ये दोनों मिलकर कैसा उत्तरप्रदेश बनाना चाहते हैं। भाजपा को हराना ही काफी नहीं है। अगर हराना ही अंतिम लक्ष्य है तो पहले आप भाजपा को हराइए और फिर एक-दूसरे को हराने में जुट जाइए। यही हाल सभी विरोधी दलों और गठबंधनों का है। अभी सपा-बसपा गठबंधन को राहुल गांधी, अजित सिंह और शिवपाल यादव से भी निपटना है। यह गठबंधन कई अन्य प्रादेशिक गठबंधनों को भी जन्म दे सकता है। भाजपा के लिए यह गंभीर चुनौती की तरह उठ खड़ा हुआ है।
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