दावोस में चल रहे विश्व आर्थिक सम्मेलन में ऑक्सफॉम ने जो रपट पेश की है, वह बहुत चिंता पैदा करती है। दुनिया के दूसरों देशों की बात जाने दे, जहां तक भारत का सवाल है, यहां गैर-बराबरी सुरसा के बदन की तरह फैल रही है। भारत के 9 अमीरों के पास देश की आधी संपत्ति है। भारत के अरबपतियों के संपत्ति में रोजाना 22,000 करोड़ रू की वृद्धि होती है। देश के 10 प्रतिशत अमीरों के पास 77.4 प्रतिशत संपत्ति है। देश की 60 प्रतिशत आबादी के पास सिर्फ 4.8 प्रतिशत संपत्ति है। पिछले कुछ वर्षों में अमीरों पर लगने वाले टैक्स में काफी कटौती हुई है। यदि भारत सरकार देश के 10 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों पर एक या दो प्रतिशत टैक्स बढ़ा दे तो स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व सुधार हो सकते हैं। अमीरों की समृद्धि बढ़ रही है, यह कोई बुरी बात नहीं है लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि गरीबों की गरीबी बढ़ती जा रही है। समतामूलक समाज का सपना हवा में उड़ गया है।
कोई राजनीतिक दल गैर-बराबरी के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता। जब से काम-धंधों और उद्योगों में निजीकरण को छूट मिली है, यह गैर-बराबरी आसमान छूने लगी है। जिस कारखाने के मजदूरों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज की न्यूनतम सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं, उसके मेनेजरों और मालिकों के रोजाना के खर्च हजारों और लाखों में होते हैं। एक तरफ दवा और इलाज के अभाव में देश के गरीब लोग दम तोड़ देते हैं और अमीरों की औरतें उससे कई गुना ज्यादा पैसा अपनी साज-सज्जा और तड़क-भड़क में खर्च कर देती हैं। गांवों और छोटे कस्बों के एक-एक कमरे में चार-चार, पांच-पांच लोग धंसे रहते हैं जबकि दो-दो, तीन-तीन लोग दर्जनों कमरों वाले मकानों में जमे रहते हैं। दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे-नंगे लोग किसी देश में हैं तो वे भारत में हैं। क्या सरकार लोगों के खर्चों पर रोक नहीं लगा सकती ? क्या हमारे नेता लोग अपने खर्चे कम करके उत्तम उदाहरण पेश नहीं कर सकते ?
हम भारतीय समाज को, खासतौर से मध्यम वर्ग को उपभोक्तावादी क्यों बना रहे हैं ? उन्हें पूंजीवादी और साम्यवादी ढांचे में क्यों ढाल रहे हैं ? हम उन्हें प्राचीन भारतीय आदर्श ‘त्याग के साथ उपभोग’ (त्येन त्यक्तेन भुंजीथा) के वैचारिक ढांचे में क्यों नहीं ढाल रहे ? हम यदि अपना दुनियावी नजरिया बदल लें तो देश में शिक्षा और चिकित्सा लगभग मुफ्त और सर्वसुलभ होगी। गरीबी फिर भी रहेगी लेकिन वह किसी को महसूस नहीं होगी।
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