आज विश्व हिंदी दिवस है लेकिन क्या हिंदी को हम विश्व भाषा कह सकते हैं? हां, यदि खुद को खुश करना चाहें या अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना चाहें तो जरुर कह सकते हैं, क्योंकि यह दुनिया के लगभग पौने दो सौ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है (इनमें भारत के भी हैं), दुनिया के लगभग आधा दर्जन प्रवासी भारतीयों के देशों में किसी न किसी रुप में यह बोली और समझी जाती है। कई देशों में विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित होता रहा है। 1975 में प्रथम बार यह नागपुर में आयोजित हुआ है। लगभग 50 साल इस विश्व हिंदी सम्मेलन को आयोजित होते हुए हो गए लेकिन हिंदी की दशा आज भी भारत में नौकरानी की है। अंग्रेजी आज भी भारत की महारानी है और हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएं उसकी नौकरानियां हैं।
देश में कांग्रेस और विरोधी दलों की इतनी सरकारें पिछले 72 साल में बनी लेकिन किसी प्रधानमंत्री की हिम्मत नहीं पड़ी कि इस अंग्रेजी महारानी को उसके सिंहासन से नीचे उतारे। भाजपा और नरेंद्र मोदी को 2014 में हम इसीलिए लाए थे। उनके लिए हमने अपना सारा अस्तित्व और संबंध दांव पर लगा दिए थे लेकिन इन पिछले साढ़े पांच वर्षों में हुआ क्या? सिर्फ संयुक्तराष्ट्र में हिंदी का भाषण मोदी और सुषमा ने पढ़ दिया बाकी हर जगह आपको हिंदी वैसी ही पायदान पर बैठी मिलेगी, जैसी वह लार्ड मैकाले के जमाने में बैठी हुई थी। कानून, चिकित्सा, इंजीनियरी, अंतरराष्ट्रीय राजनीति आदि किसी विषय की उच्च शिक्षा हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में नहीं होती न कोई शोध होता है। सरकार के फैसले, संसद के कानून, अदालतों के फैसले, मरीजों का इलाज- ये सब काम अंग्रेजी में होते हैं।
देश में ठगी का यह सबसे बड़ा कारोबार है। मैं अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा को स्वेच्छया पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण समर्थक हूं लेकिन जब तक स्वभाषा में काम नहीं होगा, यह भारत एक नकलची, फिसड्डी और पिछलग्गू देश बना रहेगा। हम हिंदी को विश्व भाषा तो जरुर कहते हैं लेकिन हमें यह कहते हुए जरा भी शर्म नहीं आती कि भारत के प्रांतों के बराबर जो देश हैं उनकी भाषाएं तो संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्य है और हिंदी को वहां घुसने की भी इजाजत नहीं है।
रोहित शर्मा says
बिल्कुल सत्य कहा वैदिक जी आपने ! किसी भी राष्ट्र का विकास,उसकी, अपनी राष्ट्र भाषा या वहां बोली जाने वाली बोलियों से ही संभव है।भारत के स्वतंत्रता को ७० वर्षों से अधिक को हो गए किन्तु!अब तक इस राष्ट्र की राष्ट्र भाषा के मामले में भी वही स्थिति है जो आज से बेहत्तर सालों पूर्व थी।कुछ लोगों के इतने बेहूदगी व घटिया तर्क है कि भारतीय भाषा के पास इतना शब्द भंडार नहीं है,जो अंग्रेजियत के पास है -वास्तव में ऐसे लोगों ने न तो भाषा को,साहित्य को ढंग से समझा और ना ही पढ़ा है।जब तक हम किसी भाषा में काम नहीं करेंगे तब क्या उस भाषा का परिष्कार संभव है?
हिंदी राष्ट्र भाषा तो उस दौर में भी सरलता से बन जाती जब अंग्रेजियत को हिंदी के साथ राज काज की भाषा घोषित किया गया था।
उत्तर भारत की तुलना में कुछ लोग दक्षिणी भाग को अधिक साक्षर व विवेकपूर्ण मानते है।लेकिन क्या वह भी वास्तव में विवेकी है?उनकी समझदारी और सर्तकता पर यह प्रश्न चिह्न इसलिए क्यूंकि एक भारतीय भाषा से दूसरी भारतीय ज़बान को कैसा खतरा?असल मुद्दा यहां पर राजनैतिक विचारधारा ही है क्यों कि दक्षिण भारत में उत्तरीय भारत के तौर हिन्दू-मुस्लिम या अंधविश्वास कभी हावी नहीं हो पाया और यदि आप इस विषय को ज़रा गौर से देखें तो पाएंगे कि यहां के अधिकतर राजनीति दल/विचारधारा की शुरुआत ही हिंदी विरोध से शुरू हुई है।
अगर हमारे यहां “सम्पूर्ण भारत” की सरकारें चाहती तो अनिवार्य शिक्षा के अन्तर्गत एक दूसरे की स्थानीय भाषा भी सीखा सकती थी।किन्तु उन्होंने कभी ऐसा किया ही नहीं,अगर ऐसा कर देती तो शायद! उनकी राजनैतिक रोटियां खत्म हो जाती।उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता।
एक बात औ’ यह है कि जो हिंदी भाषा,इन अहिंदी भाषा क्षेत्रों में दिनकर-बच्चन या वर्तमान दौर में कुमार विश्वास जी आदि अनेक साहित्यकारों/रचनाकारों के कारण बड़े अदब से सुनी जाती है,वो हिंदी भाषा आज तक क्या कारण रहा जो राष्ट्र भाषा ना बन पाई?