जनसत्ता, 17 अप्रैल 2009 : समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र् में अंग्रेजी हटाने की बात क्या कह दी, अंग्रेजी अखबारों पर आसमान टूट पड़ा| वे अंग्रेजी को लादने के समर्थन में एक से एक तर्क दे रहे हैं| उनकी घबराहट स्वाभाविक है| अगर देश में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चल पड़ा तो अंग्रेजी अखबारों के लिए जान का खतरा खड़ा हो जाएगा| डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि जितने अंग्रेजी अखबार भारत में छपते हैं, उतने दुनिया के किसी भी पूर्व-गुलाम देश में नही छपते| भारत की तरह अंग्रेजों के अन्य गुलाम देशों की संख्या लगभग 50 रही है| उनमें भी अंग्रेजी का काफी दबदबा है लेकिन भारत-जैसा दबदबा उसका कहीं नहीं है| इसीलिए भारत आजाद होते हुए भी गुलाम है| इस गुलामी की तरफ आजकल हमारे नेताओं का ध्यान बिल्कुल नहीं जाता| सबसे पहले इस मर्ज़ पर महर्षि दयानंद ने उंगली रखी थी| अब से लगभग डेढ़ सौ साल पहले उन्होंने सारे राष्ट्र को एक सूत्र् में बाँधने के लिए ‘आर्य भाषा’ (हिंदी) पर ज़ोर दिया था| उनकी मातृभाषा गुजराती थी और कार्यभाषा संस्कृत थी लेकिन उन्होंने हिंदी सीखी और अपने समस्त पांडित्यपूर्ण गंथ सरल हिंदी में लिखे| हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रति उनका आग्रह इतना प्रबल था कि उन्होंने अपने हिंदी ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद नहीं होने दिया| वे कहते थे, जिसे मेरे ग्रंथ पढ़ने हैं, वह अपने आप हिंदी सीखेगा| महर्षि दयानंद मानते थे कि स्वभाषा के बिना स्वराज अधूरा है| इसीलिए आर्यसमाज ने हिंदी के कई जन-आंदोलन चलाए लेकिन अब आर्य समाज बड़े-बड़े भवनों में सिकुड़ गया है| पता नहीं, वह दयानंद के इस अधूरे काम को पूरा करेगा या नहीं|
महर्षि दयानंद के काम को महात्मा गांधी ने नए मुकाम पर पहुंचाया| उन्होंने अंग्रेजी के वर्चस्व पर सीधा प्रहार किया| अपने जीवन के अंतिम दिन उन्होंने बीबीसी को एक संदेश में कहा कि दुनिया को बता दो कि गांधी-अंग्रेजी नहीं जानता| गांधीजी ने तो यहां तक कहा था कि संसद में वे सिर्फ छह माह की मोहलत देंगे| उसके बाद जो भी वहाँ अंग्रेजी में बोलेगा, उसे वे गिरफ्तार करवा देंगे| उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और लंदन में रहकर अंग्रेजी के असली रूप को देख लिया था| वे मानते थे कि अंग्रेजी गुलामी की जड़ है| किसी भी देश को अपना गुलाम बनाने का गुप्त मंत्र् यही है उसके भद्रलोक को अपनी भाषा रटा दो| लॉर्ड मैकाले ने यही किया| अंग्रेज को गए 61 सालहो गए लेकिन हमारा देश अब भी गुलाम है| मुट्टी भर काले अंग्रेज अपने बूटों तले सारे देश को रौंदे हुए हैं| जब मैं हमारे राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों को अपने छोटे-मोटे अंग्रेजीदाँ अफसरों के सामने हकलाते हुए देखता हूं तो मुझे मैकाले की याद आती है| उसके एक ही झटके में भारत को कितना जबर्दस्त धोबीपाट मारा है|
मैकाले की कुचाल को गांधी कुचल देते, अगर वे दो-चार साल भी और जिंदा रह जाते लेकिन वे तो आजादी के ठीक साढ़े चार माह बाद ही चल बसे ! बेचारे गांधीवादियों से क्या आशा की जाती ? वे अब तक विधवा-विलाप में ही डूबे हुए हैं| असली गांधी कभी का बिसर गया| वे नकली गांधी के जरिए नौकरियाँ, अनुदान, पद और पदवियाँ हथियाने में अपना पवित्र् जीवन नष्ट किए जा रहे हैं| इन्हें ही डॉक्टर लोहिया मठी गांधीवादी कहते थे|
दयानंद और गांधी की भाषा-नीति को आज़ादी के बाद देश में किसी ने ईमानदारी से चलाया तो डॉक्टर लोहिया ने चलाया| लोहिया की बात सबको सुनना पड़ती थी, क्योंकि हमारे शीर्ष नेताओं के बीच वे ही सर्वश्रेष्ठ मौलिक विचारक थे और जर्मन, अंग्रेजी, फ्रांसीसी आदि कई भाषाएं जानते थै| वे अक्सर मुझसे रूसी और फारसी शब्दों के अर्थ भी पूछा करते थे| उन्होंने पूरे देश में अंग्रेजी हटाओं आंदोलन जमकर चलाया| वे कहा करते थे कि अंग्रेजी का वर्चस्व सारी बुराइयों की जड़ है| अंग्रेजी के कारण इस देश में ज्ञान-विज्ञान, लोकतंत्र्, समता, आधुनिकता आदि तो पिछड़ ही गए हैं, जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा, भारत में ईमानदारी भी कभी नहीं आएगी| वे मानते थे कि अंग्रेजी के कारण ही भारत की शिक्षा, प्रशासन, न्याय और जन-जीवन भ्रष्ट और ढोंगी हो गया है| उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दौर में अंग्रेजी हटाओं आंदोलन का जिम्मा श्री अध्यात्म त्रिपाठी, श्री कृष्णनाथ और मुझे सौंपा था| हमने अहमदाबाद, नागपुर और इंदौर में अभूतपूर्व सम्मेलन किए| जिनमें लगभग सभी प्रांतों के लोग और सभी पार्टियों के नेता शामिल हुए लेकिन अब हिंदुस्तान की किसी पार्टी या नेता में इतना दम नहीं है कि वह अंग्रेजी हटाओं आंदोलन चलाए| हमारी पार्टियां अब आंदोलन चलाने लायक नहीं रह गई हैं| वे निजी दुकानदारियाँ बन गई हैं| उन्हें सत्ता और पत्ता के अलावा कुछ नहीं सूझता| वोट और नोट ही उनके बि ब्रह्रमा है, बाकी सब माया है| ऐसे माहौल में अगर समाजवादी पार्टी ‘अंग्रेजी हटाओ’ की बात कहती है तो यह तो मानना पड़ेगा कि कम से कम उसका पुराना सिद्घांत-प्रेम अब भी जिंदा है, चाहे नाम के लिए ही सही| नाम जपने का पुण्य तो मिलता ही है| समाजवादी पार्टी इस मुद्दे पर कभी कोई आंदोलन चलाएगी, इसमें मुझे संदेह है लेकिन ज़रा देखिए कि देश की दो बड़ी पार्टियाँ और उनके छोटे-मोट नेता सिर्फ नाम-जप से ही कितने बौखला गए हैं| समाजवादी पार्टी के नेताओं में अगर थोड़ी-बहुत सूझ-बूझ हो और उनमें कुछ दम-खम बच रह गया हो तो चुनाव-अभियान के दौरान ही वे अंग्रेजी हटाओं आंदोलन छोड़ दें| देखिए, उसका कैसा चमत्कारी परिणाम होगा| देश के करोड़ों नौजवान, जो अंग्रेजी की चक्की में पिस रहे हैं, इस आंदोलन में कूद पड़ेंगे| जो पार्टी यह घोषणा कर देगी कि सरकार की किसी भी नौकरी में वह अंग्रेजी की अनिवार्यता नहीं रहने देगी, उसे भारतीय युवजन का हृदय-हार बनने में कितनी देर लगेगी ? आखिर हमारे देश में नौजवान अंग्रेजी क्यों सीखते हैं ? अंग्रेजी स्कूलों में जाकर माता-पिता अपनी जेब क्यों कटाते हैं ? इसीलिए नहीं कि अंग्रेजी बड़ी मधुर भाषा है या सरल भाषा है या देव भाषा है| वे सिर्फ इसलिए अंग्रेजी सीखते है कि उसके बिना उन्हें नौकरी नहीं मिलती| यदि नौकरियों से अंग्रेजी हट जाए तो फिर अंग्रेजी को कौन पूछेगा ? इस समय तो अंग्रेजी को वे सब भी पूछते हैं, जिन्हें अंग्रेजी की कोई जरूरत नहीं है लेकिन नौकरियों से उसे हटाने के बाद सिर्फ वे ही लोग उसे पूछेंगे, जिन्हें उसे पूछना चाहिए| कौन पूछेंगे, उसे ? विदेशों से व्यापार करनेवाले, विदेशों से कूटनीति करनेवाले, विदेशी ज्ञान-विज्ञान का शोध करनेवाले और विदेशों में रहकर नौकरी करनेवाले ! ऐसे लोगों की संख्या कितनी होगी ? हर साल ज्यादा से ज्यादा पाँच लाख ! सिर्फ पाँच लाख लोगों को अंग्रेजी जानना है, इसके लिए 110 करोड़ लोगों पर अंग्रेजी थोपने की क्या जरूरत है ? क्या कोई ससुर ऐसी बहू को घर में रहने देगा, जो चार सदस्यों के भोजन के लिए 40 आदमियों का आटा रोज़ गूंध ले ? भारत की सरकारें इसी पागल बहू की तरह है| हमारी यह बहू मामूली पागल नहीं है| यह पागलों की महारानी है| वह गेहूँ के आटा के अलावा न कुछ गूंधती है न रांधती है| कहती है, गेहूँ सबसे स्वादिष्ट है| बस इसी की रोटियाँ खाइए| और कुछ खाने की जरूरत नहीं है| दाल-भात, पूरी कचौरी, साग-सब्जी – सब बेकार है| यही पूर्ण भोजन है| विदेशी भाषा के नाम पर सिर्फ अंग्रेजी सीखो| बाकी भाषाएँ जाएँ भाड़ में| सारी दुनिया में अंग्रेजीभाषी कितने है ? मुश्किल से 30-35 करोड़ ! कितने राष्ट्रों की भाषा अंग्रेजी है सिर्फ साढ़े चार ! अमेरिका, बि्रटेन, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ! इसमें आधा केनाडा और जोड़ लीजिए| इन पाँच राष्ट्रों में भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा नहीं मानते| वे हिस्यानी, फ्रांसीसी, आयरिश, स्कॉटिश आदि को अपनी भाषा कहते हैं| वे अंग्रेजी के एकाधिकार के विरूद्घ अपने-अपने देश में आंदोलन भी चलाते रहते हैं| लेकिन हमने अंग्रेजी को विश्व-भाषा का दर्जा दे रखा है| उक्त साढ़े चार देशों के अलावा अंग्रेजों के पुराने गुलाम देशों में मुश्किल से एक-दो प्रतिशत लोग अंग्रेजी थोड़ी-बहुत जानते है| शेष लगभग 150 देशों में अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या नगण्य हैं| दुनिया का एक भी महाबली राष्ट्र ऐसा नहीं है, जहाँ किसी विदेशी भाषा की पिटाई अनिवार्य हो या ज्ञान-विज्ञान की पढ़ाई का माध्यम कोई विदेशी भाषा हो| भारत दुनिया का एक मात्र् ऐसा देश है, जो एक विदेशी भाषा अपनी जनता पर थोपकर महाशक्ति बनना चाहता है| दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्रों ने अपनी जनता पर अंग्रेजी कभी नहीं थोपी| उन देशों में वे ही लोग अंग्रेजी जानते हैं, जिन्हें विदेशी भाषाएँ जानना जरूरी है वे सिर्फ अंग्रेजी के पीछे नहीं पड़े रहते| वे जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी, चीनी, हिस्यानी, अरबी, फारसी और हिंदी वगैरह भी जानते हैं| हम भारतीय लोग अंग्रेजी के अंधभक्त हैं| हमारी गुलामी अपरंपार है| हम अंग्रेजी के अलावा दुनिया की कोई अन्य भाषा नहीं जानना चाहते| चीन के साथ हमारा व्यापार 60 अरब डॉलर का है, जो दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है| यदि भारत में पाँच-सात हजार लोग भी चीनी भाषा जानते होते तो यह व्यापार 300 अरब डॉलर तक पहुंच जाता| हमारे लगभग 50 लाख नागरिक अरब देशों में नौकरियां कर रहे हैं लेकिन उनमें से पांच हजार भी अरबी जानते होते तो वहां भारतीयों का रूतबा ही कुछ और होता| हमारे दूतावास लगभग डेढ़ सौ देशों में हैं लेकिन हमारे कूटनीतिज्ञ प्राय: उन देशों की भाषा नहीं जानते| दुभाषियों के जरिए अपनी गाड़ी धकाते हैं| उन्हंे असलियत का पता ही नहीं चलता| उनकी आंख पर अंग्रेजी की पट्टी बंधी रहती है| इसी प्रकार हमारे विश्वविद्यालयों में शोध करनेवाले अध्येता प्राय: अपने आपको अंग्रेजी की खूंटी पर टॉंग लेते हैं| दुनिया की अन्य भाषाओं में क्या-क्या खोज हो रही है, उन्हें पता ही नहीं चलता| अंग्रेजी हमें लंबी-चौड़ी दुनिया से जोड़ती नहीं, तोड़ती है| हम अंग्रेजी कुएँ के मेंढक हैं| जो लोग अंग्रेजी के अलावा अन्य विदेशी भाषाएँ भी जानते हैं, वे मेरी बात अच्छी तरह समझ सकते हैं| अंग्रेजी अपने देश के भी दो टुकड़े करती है| एक इंडिया और दूसरा भारत ! ‘इंडिया’ में दो-तीन करोड़ लोग रहते हैं| ये अंग्रेजीदां हैं, ऊंची जात हैं, शहरी हैं, मालदार हैं| ‘भारत’ में 100 करोड़ लोग रहते हैं| ये स्वभाषाभाषी हैं, ज्यादातर नीची जात हैं, ग्रामीण या कस्बाई हैं, गरीब हैं| इनमें से 80 प्रतिशत 20 रू0 रोज पर गुजारा करते हैं| ये शासित हैं| वे शासक हैं| वे काले अंग्रेज हैं| वे अंग्रेजों से ज्यादा गुलछर्रे उड़ाते है| उनसे ज्यादा अत्याचार करते है| अंग्रेजी इस भद्रलोक का ब्रह्रमास्त्र् है| यदि आप अंग्रेजी की दीवार ढहा दे तो ‘भारत’, ‘इंडिया’ की छाती पर चढ़ बैठेगा| गुलामों की तरह जीवन बितानेवाले करोड़ों लोग सचमुच आज़ाद हो जाएँगे| सच्ची आज़ादी कौन चाहता है ? हमारे नेता मलाई खानेवाले मजनूं हैं, खूने देनेवाले मजनूं नहीं| वे तर्क करते हैं कि अंग्रेजी हटाओं का नारा देनेवाले फलॉं नेता के बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं, विदेश में पढ़े हैं| अर भई, तुम्हे पता नहीं कि गॉंधी और लोहिया कौनसे माध्यम से पढ़े थे और कहॉं से पढ़े थे| जब तुमने सारी शिक्षा-व्यवस्था ही सड़ा रखा है तो उसमें से अपवाद कैसे निकलेंगे ? क्या तुम्हें याद नहीं कि 45 साल पहले मैंने पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह किया था तो क्या हुआ था ? पूरे देश में हंगामा हो गया था| संसद हिल गई थी|
अब एक बार देश को दुबारा हिलाने की जरूरत है| कौन हिलाएगा इसे ? इसे वे नौजवान हिलाएँगे, जिनकी उन्नति के दरवाज़ों पर अंग्रेजी का ताला ठुका हुआ है| अंग्रेजी की बेडि़या डॉलकर पहले उन्हें पंगु बना दिया जाता है और फिर उनके सामने आरक्षण के जूठे टुकड़े फेंक दिए जाते हैं| राष्ट्रीय स्वाभिमान की हत्या कर दी जाती है| अंग्रेजी की बेडि़या टूटते ही यह राष्ट्र नई करवट लेगा| सैकड़ों वर्षो से रूंधे हुए शक्ति के स्त्रेत एकदम खुल पड़ेंगे|
यदि भारत में अंग्रेजी थोपी नहीं गई होती तो यह राष्ट्र अब से बहुत पहले ही महाशक्ति बन गया होता| अपनी भाषा के जरिए अगर लोग ज्ञान-विज्ञान सीखते तो वे जर्मनी और जापान से आगे निकल जाते| ये दोनों राष्ट्र द्वितीय महायुद्घ में हार गए थे लेकिन कितनी जल्दी संभल गए ? चीन भारत से भी पिछड़ा हुआ था लेकिन हमसे कितना आगे निकल गया ? इन राष्ट्रों ने अपना सारा काम-काज अपनी भाषाओं में किया| जब स्वभाषाओं में काम-काज होता है तो राष्ट्र का हर नागरिक उसमें भागीदारी करता है| आज भारत की हालत क्या है ? मुश्किल से 8-10 प्रतिशत नागरिक राष्ट्र के महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में सकि्रय भागीदारी करते हैं| शेष करोड़ों लोग मूक दर्शक बने रहते हैं| अंग्रेजी में बननेवाले सरकारी कानून-क़ायदों को कितने लोग समझते हैं ? अदालतें जिन लोगों के फैसले करती हैं, क्या उनमें से दो-चार प्रतिशत लोग भी उस कार्रवाई को समझ पाते हैं ? संसद में अंग्रेजी में चलनेवाली बहस क्या उसे राजनीति क अजायब घर नहीं बना देती ? हमारे देश में चलने वाला डॉक्टरी इलाज क्या जादू-टोने की तरह नहीं होता ? देश के करोड़ों लोगों को हाशिए में डाले रखने का सबसे कारगर नुस्खा अंग्रेजी ही है| अंग्रेजी हटे तो पूरे देश की धमनियों में रक्त का संचार हो| स्वाभिमान और आत्म-विश्वास से सारा राष्ट्र भर जाए| अंग्रेजी हटे तो देश हिले|
(लेखक देश में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के सूत्र्धार हैं और अनेक देशी-विदेशी भाषाओं के जानकर हैं)
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