कादम्बिनी, फरवरी 2006 : जो काम अगले सौ साल में भी संभव दिखाई नहीं पड़ता, वह अचानक होता हुआ दिख जाए तो क्या होगा? क्या हमें अपनी आंखों पर विश्वास होगा? ऐसा ही अजूबा हमने अंडमान-निकोबार में देखा| अंडमान-निकोबार भारत की मुख्यभूमि से लगभग तीन हजार किलोमीटर दूर है| हवाई जहाज का किराया 40 हजार रु. से भी ज्यादा है| राजधानी पोर्ट ब्लेयर तक की कोई सीधी उड़ान नहीं है| कलकत्ता या चेन्नई में जहाज बदलना पड़ता है| कभी-कभी पूरा दिन या पूरी रात इन दो शहरों में रुकना पड़ता है| जहाज रोज पोर्ट ब्लेयर नहीं जाता| लगता है कि अमेरिका जाना आसान है, पोर्ट ब्लेयर जाना कठिन ! अगर कठिन नहीं होता तो अंग्रेज उसे अपने सबसे खतरनाक कैदियों की जेल क्यों बनाता? लोग उसे ‘काला पानी’ क्यों कहते ? 1857 के क्रांतिकारियों के लिए बनी पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल तो अण्डमान-निकोबार का सबसे बड़ा आकर्षण है ही लेकिन जो कुछ अन्य चमत्कारी बातें हमने वहां देखीं, वे भारत में कहीं और नहीं दिखीं| हो सकता है कि वह भावी भारत का दर्पण हो| जो अंडमान में अभी दिखा, वह शेष भारत में सौ साल बाद भी दिख सके तो भारत दुनिया का सबसे सुखी और शक्तिशाली देश बन जाएगा|
पोर्ट ब्लेयर में सबसे कमाल की बात यह दिखी कि एक ही परिवार में हिंदू, मुसलमान और ईसाई साथ-साथ रहते हैं| ससुर हिंदू है, सास मुसलमान है और बहू ईसाई है| पति सब-कुछ है| घर के सभी सदस्य मिलकर सभी पंथों के त्यौहार मनाते हैं| आपस में कोई मन-मुटाव, तनाव या बेबनाव नहीं है| सभी अपना-अपना पूजा-पाठ अपने हिसाब से करते हैं| लेकिन उसके साथ-साथ हिंदू पति रोज़े रखता है और मुसलमान पत्नी बड़े उत्साह से करवा चौथ का व्रत रखती है| सभी मिलकर दीवाली, ईद और कि्रसमस मनाते हैं| शादी करते समय न तो वे अपने नाम बदलते हैं, न अपना मज़हब ! खान-पान, रहन-सहन और रीति-रिवाज़ में वे यह ध्यान रखते हैं कि घर के किसी सदस्य को किसी तरह चोट न पहुंचे| दूसरे शब्दों में सच्चा मानव धर्म यदि कहीं देखना हो तो कोई अंडमान-निकोबार में आकर देखे| ऐसा नहीं है कि तीन-चार लाख की जनसंख्या में यह मानव-धर्म किसी इक्का-दुक्का परिवार में ही दिखाई पड़ता हो| इस तरह के अभेद-दृष्टिवाले सैकड़ों परिवार इन द्वीपों में मिल जाते हैं| यहां पांच सौ से भी ज्यादा द्वीप हैं| छोटे-बड़े लगभग 40 द्वीपों में लोग बसे हुए हैं| ये द्वीप जितने छोटे होते हैं, मिश्रित परिवार वहां उतने ही ज्यादा होते हैं|
ऐसा क्यों होता है? इसका कारण बहुत सरल है| अंडमान-निकोबार की जनसंख्या अब से डेढ़ सौ साल पहले कुछ सैकड़ों में ही थी| औरतें बहुत कम थीं और आदमी ज्यादा| सेलुलर जेल में अभी लगभग छह सौ सेल ही हैं| डेढ़ सौ साल पहले तो ये और भी कम थे| पहले-पहल वहां अपराधियों को ही ले जाया जाता था| सन्र 1858 में पहली बार 200 बागियों को ‘काला पानी’ ले जाया गया| सज़ा पूरी करने के बाद कुछ अपराधी वापस लौटना पसंद नहीं करते थे| वे वहां रहकर शादी किससे करते? कुछ लोग शादी करके मुख्य भूमि से वापस भी लौट आते थे| जो लोग वहीं बसे रहते थे, वे अपराधी औरतों से ही शादी करें, यह उनकी मजबूरी थी| जो भी उपलब्ध हो, उससे ही शादी रचा लेनी पड़ती थी| अपराध करनेवालों में औरतों की संख्या सारी दुनिया में ही कम होती है| वह अंडमान में ज्यादा कैसे होती? औरत अपराधियों और मर्द अपराधियों को आमने-सामने कतारों में खड़ा कर दिया जाता था| चट मंगनी और पट ब्याह, वहीं तय हो जाता था| ऐसे में लोग एक-दूसरे की जात और मज़हब पर जोर देंगे तो क्या बस नहीं चूक जाएंगे? असली सवाल यह था कि जात बड़ी या शादी? मज़हब बड़ा या शादी? आम आदमी मज़हब और जात के बिना तो रह सकता है, क्या शादी के बिना रह सकता है? लोग अगर शादी न करें तो सृष्टि ही न चले लेकिन अगर मज़हब और जात न मानें तो उनका कोई खास नुक्सान नहीं होगा| दुनिया के बहुत-से समुदायों का न कोई मज़हब है और न जात, फिर भी वे जिंदाबाद हैं, फल-फूल रहे हैं, प्रसन्न हैं| इसी सहज मानवीय मूलवृत्ति ने अंडमान-निकोबार के समाज का निर्माण किया है| इसीलिए वहां जात और मज़हब के ज़हरीले पक्ष उभर नहीं पाए हैं| दिन भर में आपकी भेंट ऐसे दर्जनों लोगों से हो जाती है, जिनके परिवार में ब्राह्रमण, क्षत्र्िय, हरिजन, अछूत आदि सभी वर्णों और जातियों के लोग प्रेम से रहते हैं|
निकोबार-समूह के द्वीपों में ऐसे अनेक परिवार हैं, जिनमें मज़हब और जात ही नहीं, नस्लों का भी सम्मिश्रण है| मुझे कुछ ऐसे नौजवान भी मिले, जिनकी दादी मूल रूप से थाइलैंड की और दादा बर्मा के थे| उनके चेहरे की बनावट और बादामी आंखें ही बोलती थीं कि वे आग्नेय एशिया के होंगे| निकोबार के द्वीपों, खासकर मलक्का क्षेत्र् से इंडोनेशिया और मलेशिया का गहरा संबंध रहा है| मलाया के लोग अंडमान को सैकड़ों वर्षों से ‘हंडुमान’ कहकर ही पुकारते हैं| उस क्षेत्र् के बहुत-से मछुआरे इधर ही बस गए हैं| इसी प्रकार बर्मा के करेन और कछेन कबीलों के लोग भी साठ-सत्तर साल पहले यहां आकर बस गए| 1919 के मोपला बागियों को भी यहीं लाया गया| सारे भारत याने उस समय के बि्रटिश भारत की सारी जातियों, सारे मज़हबों, सारी भाषाओं, सारी नस्लों का अज़ायबघर बन गया, अंडमान-निकोबार ! सब मिल-जुलकर रहें, एक-दूसरे को बर्दाश्त करें, इसके अलावा कोई चारा नहीं था| एक तो द्वीप से मुख्यभूमि तक जाना आसान नहीं था और अपने वतन लौटने पर सजायाफ्रता लोगों का हमेशा स्वागत भी नहीं होता था| इसीलिए अंडमान-निकोबार ने अपनी मौलिक संस्कृति का विकास कर लिया|
इसी मौलिक संस्कृति का प्रसाद है, हिंदी भाषा ! जब एक ही परिवार में हिंदी, तमिल, बंगाली, मलयाली, मराठी लोग रहते हैं तो आखिर वे किस भाषा में एक-दूसरे से बात करेंगे? उनकी स्वाभाविक संपर्क भाषा हिंदी ही होगी? अंग्रेजी कभी भी स्वाभाविक संपर्क भाषा नहीं हो सकती| वहां अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग बहुत कम थे और फिर भारतीय भाषाओं में बहुत-से शब्द समान हैं, वाक्य रचना और व्याकरण एक-जैसा है और देवनागरी लिपि सबसे सरल है| इसीलिए सारे अंडमान-निकोबार में आप जिससे भी मिलें, वह आपको हिंदी बोलता हुआ मिलेगा| हिंदी अंडमान-निकोबार की जन-भाषा है, द्वीप भाषा है, जोड़क भाषा है, संपर्क भाषा है| बहुत-से लोग तो अपनी मूल भाषा ही भूल गए हैं| तीन-चार पीढि़यों में हिंदी ही उनकी मातृ-भाषा बन गई है| यदि मुख्य भूमि भारत में भी नेतागण और नौकरशाह अंग्रेजी का अडंगा नहीं डालते तो हिंदी स्वत: राष्ट्र्रभाषा, जन-भाषा, शायद राजभाषा भी बन जाती| अब डर यह है कि अंडमान-निकोबार में भी अंग्रेजी हिंदी का सफाया करने में जुटी हुई है| बाजारों के सारे नामपट अंग्रेजी में हो गए हैं, सरकारी काम-काज अंग्रेजी में होता है और मुख्यभूमि से गए हुए लोग यहां से अंग्रेजी की गुलामी भी अपने साथ ले गए हैं| इन द्वीपों में अब भी विभिन्न भाषाभाषी एक-दूसरे से हिंदंी में बात करते हैं लेकिन यहां से गए हुए लोग एक-दूसरे पर अंग्रेजी झाड़ते रहते हैं| अपनी हीन-भावना का प्रदर्शन उन भोले-भाले द्वीपवासियों पर करने में उन्हें ज़रा भी लज्जा नहीं आती|
सिर्फ अंग्रेजी ही नहीं, कई अन्य बीमारियां भी इन सुदूर द्वीपों में हमारे यहां से पहुंचाई जा रही हैं| धर्मान्तरण की भरपूर कोशिश की जा रही है| ईसाई मिश्नरियों और तबलीगियों ने कोई कसर न उठा रखी है| फिर भी उनकी दाल ज्यादा नहीं गल पा रही क्योंकि अंडमान का नया मुल्ला भी ज्यादा अल्लाह-अल्लाह नहीं करता| उसका वैसा स्वभाव ही नहीं है| वह अभी नया-नया मुसलमान बना है लेकिन फिर भी दुर्गा-पूजा के लिए दौड़ा चला जाता है| सांप्रदायिक आधार पर इस द्वीप को बांटना अभी तक संभव नहीं हुआ है| लोकसभा में यहां से अक्सर कांग्रेस का उम्मीदवार चुना जाता है तो एक बार भाजपा का भी चुना गया है| समाजवादी पार्टी का एक बड़ा-सा बोर्ड हिंदी में देखकर आनंद हुआ| राजनीति के मैदान में जात और मज़हब के कार्ड खोलने में नेताओं को जरा भी परहेज़ नहीं है| उत्तर और दक्षिण का भेद भी भुनाया जाता है| यहां बसे हुए स्वतंत्र्ता-सेनानियों और सामान्य अपराधियों के वंशजों के बीच भेदक-रेखाएं भी खींची जाती हैं| एक मज़ेदार भेदक-रेखा और भी है| जिसे कहते हैं पि्र-1942 और उसके बाद ! इसका मतलब है, वे लोग जो 1942 के पहले से अंडमान-निकोबार में बसे हैं और जो उसके बाद आकर बसे हैं| इन सब भेद-भावों को उभाड़ने के बावजूद अंडमानी समाज शेष भारतीय समाज के मुकाबले काफी समरस है, सौमनस है, एकात्म है| आर्थिक दृष्टि से भी वह न तो बहुत विपन्न है, न सम्पन्न है| जरवा, ओंग आदि आदिवासियों को छोड़ दें तो शेष लोगों में गरीबों की संख्या बहुत कम है| कम में गुजारा करना लोगों का स्वभाव बन गया है| थोड़े में ही वे संतुष्ट हो जाते हैं| इसीलिए अंडमान-निकोबार में भिखारी दिखाई नहीं पड़ते| अपराधियों के लिए बसाए गए इस ‘काला-पानी’ में अब अपराध नही ंके बराबर होते हैं| पता नहीं इस इक्कीसवीं सदी में अंडमान-निकोबार, भारत-जैसा बन जाएगा या भारत, अंडमान-निकोबार-जैसा बन जाएगा| शायद दोनों ही एक-दूसरे पर अपना असर डालेंगे|
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