Bhaskar, 27 Oct 2005 : अखबारों को आपात्काल में ही नहीं दबाया जाता, उन्हें सामान्यकाल में भी दबाया जा सकता है| राजीव गांधी जब मानहानि-विधेयक लाए थे तो देश में आपात्काल नहीं था और अब जबकि सब-कुछ सामान्य है, मनमोहनसिंह सरकार एक ऐसा आदेश ले आई है, जो अखबारों का दम घोट सकता है| आदेश यह है कि अखबारों को मिलनेवाले विज्ञापनों पर 10.2 प्रतिशत टैक्स लगेगा| यह टैक्स विज्ञापन एजेंसियों से वसूला जाएगा और यदि विज्ञापन सीधे अखबारों को मिलेंगे तो अखबार टैक्स भरने को मजबूर होंगे| यह कानून नहीं है, आदेश है| यह किसी विधानसभा या संसद ने पारित नहीं किया है| यह वित्त मंत्रलय के राजस्व विभाग की मनमानी है|
राजस्व विभाग का सिर्फ एक ही काम है – टैक्स निचोड़ना| उसका बस चले तो वह पत्थर को भी निचोड़कर पानी निकाल ले| इसीलिए उसे दोष क्यों देना? असली जिम्मेदारी तो मंत्रियों और प्रधानमंत्री की है, जिन्हें सोचना होता है कि कहां हाथ डालें और कहां न डालें| आजकल विज्ञापनों में चांदी बरस रही है| इसीलिए सरकारी अधिकारियों के मुंह में लार टपकने लगे तो आश्चर्य क्या है? हजारों करोड़ के विज्ञापन अखबारों को मिलते हैं, यदि उनमें से दो-चार सौ करोड़ सरकार को मिल जाएं तो बुरा क्या है? जैसे किसी अन्य उद्योग या ‘सेवा’ के केक में से एक टुकड़ा सरकार अपने लिए रख लेती है, वैसे ही पत्र्कारिातिा के उद्योग और विज्ञापन-सेवा में से भी क्यों न रख ले? यह तर्क बड़ा मासूम दिखाई पड़ता है लेकिन इसमें अनेक वक्रताएं हैं|
सबसे पहले तो यही सही नहीं है कि विज्ञापन लेने या देने को ‘सेवा’ कहा जाए| कानूनी दृष्टि से किसी काम को ‘सेवा’ तभी माना जा सकता है, जबकि सेवक और सेव्य के बीच स्पष्ट संबंध हो और उनमें स्थायित्व भी हो| विज्ञापनदाता, विज्ञापन एजेंसियों और अखबारों के बीच इस तरह के सुपरिभाषित संबंध नहीं होते| विज्ञापन की जगह किसी वस्तु की तरह बेची जाती है| विज्ञापन कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते, कभी ज्यादा पड़ जाते हैं| विज्ञापनदाता की पसंदगी भी बदलती रहती है| विज्ञापनदाता कभी-कभी एजेंसियों को भुगतान भी नहीं करते लेकिन उन्हें अखबारों को सुनिश्चित राशि देनी ही पड़ती है| ऐसी स्थिति में यदि एजेंसियों को दस प्रतिशत टैक्स भी भरना पड़ा तो उनका बिस्तर गोल होने से कौन रोक सकता है| सौदे को ‘सेवा’ बना देंगे तो यही होगा|
यहां सवाल सिर्फ विज्ञापन एजेंसियों के भविष्य का ही नहीं है, खुद अखबारों और लोकतंत्र् के भविष्य का भी है| यदि अखबारों को विज्ञापन सीधे मिलने लगें, जो कि कुछ न कुछ परिमाण में मिलते ही हैं, तो क्या अब अखबारों पर भी टैक्स थोप दिया जाएगा? यदि विज्ञापन पर टैक्स तो कागज पर, परिवहन पर, विक्रय पर टैक्स क्यों नहीं? क्या वजह है कि सरकार ने अखबारों को सेल्स टैक्स, आल्ट्र्रॉय, एक्साइज़ टैक्स आदि से मुक्त कर रखा है? सबको पता है कि अखबार, अखबार है, कोई जूता-चप्पल या चड्डी-बनियान नहीं है| अखबार चांदी कूटने की दुकान नहीं है| अखबार भी पैसा कमाते हैं लेकिन यह उनकी आखिरी प्राथमिकता होती है| ज्यादातर अखबार तो पैसा गंवाते हैं और जो कमाते हैं, वे दूसरे उद्योगों के मुकाबले इतना कम कमाते हैं कि पैसे पर नज़र रखनेवाले उद्योगपति इस खतरनाक धंधे को दूर से ही नमस्कार करते हैं| यदि विज्ञापन पर दस प्रतिशत का टैक्स लगा दिया गया तो अखबारका धंधा और भी ज्यादा खतरनाक बन जाएगा| विज्ञापन के टैक्स की मार आखिरकार अखबार पर ही पड़ेगी| विज्ञापन एजेंसियां अपने पास से तो टैक्स भरने से रहीं| या तो विज्ञापन की आवक घटेगी या अखबारों की आमदनी घटेगी|
क्या हमारे सरकारी अधिकारियों को पता नहीं कि विज्ञापन अखबारों की प्राणवायु है| यदि विज्ञापन बंद हो जाएं तो जो अखबार आपको दो रु. में मिलता है, वह 10 या 15 रु. में मिलने लगेगा| भारत के कई पड़ौसी देशों में यही स्थिति है| मैं जब भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश आदि जाता हूं तो वहां सुबह-सुबह एक साथ दस-बारह अखबार खरीदने की हिम्मत नहीं होती| लगता है, डेढ़-दो सौ रुपए रोज तो अखबार पर ही खर्च हो जाएंगे लेकिन इसके विपरीत भारत में हम 10-15 अखबार रोज खरीद सकते हैं| क्योंकि भारत में अखबार सस्ते हैं, दुनिया में सबसे ज्यादा सस्ते ! सस्ते होने का क्या फायदा है? फायदा यह है कि उन्हें करोड़ों लोग पढ़ते हैं| लोकतंत्र् की मशाल जगमगाती रहती है| यदि इसी अखबार की कीमत 10 या 15 रु. हो तो क्या होगा? लोग असमंजस में पड़ जाएंगे| अखबार पढ़ें या नाश्ता करें? अखबारों की प्रसार-संख्या एकदम घट जाएगी, जैसे ि क वह पड़ौसी देशों में है| ईरान और श्रीलंका जैसे देशों में 90 प्रतिशत तक साक्षरता है, लेकिन वहां अखबार लाखों की संख्या में नहीं बिकते| भारत में दर्जनों अखबार हैं, जो लाखों की संख्या में बिकते हैं| हिंदी के अखबार तो 20-20 लाख तक पहुंच गए हैं| यह इसीलिए संभव है कि अखबार के कमरतोड़ खर्चे का बोझ विज्ञापन संभाल लेता है| आप विज्ञापन की कमर तोड़ दीजिए या उसे लंगड़ा कर दीजिए, हजारों छोटे-मोटे अखबार तो उसी समय दम तोड़ देंगे या जो थोड़े दमदार होंगे,उनकी पंसार संख्या लाखों से सिकुड़कर हजारों में रह जाएगी| अखबार तो किसी तरह जिंदा रह लेंगे लेकिन उनके करोड़ों पाठक मर जाएंगे| क्या प्रकारांतर से यह लोकतंत्र् की हत्या नहीं होगी?
लोकतंत्र् के जैसे कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका – तीन स्तंभ हैं, वैसे ही चौथा स्तंभ है, खबरपालिका| खबरपालिका सबसे बड़ा और सबसे जीवंत स्तम्भ है| इस स्तम्भ की मुख्य खुराक है – विज्ञापन ! यह कैसा अनर्थ है कि कार्यपालिका, विधानपालिका की मुख्य खुराक में ही कटौती कर रही है| यदि कार्यपालिका अपनी फिजूलखर्ची में से एक प्रतिशत की कटौती भी कर दे तो उसे खबरपालिका का दस प्रतिशत पेट काटने की जरूरत नहीं पड़ेगी| केंद्र सरकार को तय करना है कि उसका लिपिस्टिक-पाउडर ज्यादा जरूरी है या अखबारों का दाना-पानी ! खबरपालिका के पेट पर लात मारनेवाली सरकारें क्या सही-सलामत रह सकती हैं?
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