दैनिक भास्कर, 18 मई 2009 : इस चुनाव के सबसे चमत्कारी पहलू पर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है| वह पहलू है, अखिल भारतीयता की पुष्टि ! पिछले 20 वर्षों में हर चुनाव ने अखिल भारतीयता को धक्का पहुंचाया| इंदिरा गांधी की शहादत के साये में हुए 1984 के चुनाव ने कॉंग्रेस को 400 से अधिक सीटें दी थीं| लेकिन उसके बाद जितने भी चुनाव हुए, किसी भी पार्टी को कभी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला| इतना ही नहीं, उनकी अखिल भारतीयता भी सिकुड़ती चली गई| भारत के अनेक प्रांतों में कॉंग्रेस या भाजपा का नामो निशान या तो खत्म हो गया या उनकी उपस्थिति नगण्य-सी हो गई| भारत नामक राष्ट्र-राज्य के लिए यह सबसे खतरनाक चुनौती थी !
केंद्र में कोई सरकार पॉंच साल चले या दो साल, यह उतना बुरा नहीं है, जितना यह कि पूरे देश को एक सूत्र् में बॉंधनेवाली पार्टी का अभाव हो जाए| वास्तव में ऐसी अखिल भारतीय पार्टी केवल एक नहीं, कम से कम दो तो होनी ही चाहिए| तीन-चार हों तो और अच्छा ! स्वस्थ लोकतंत्र् के लिए यह जितना आवश्यक है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह इसलिए है कि उसके बिना देश के टुकड़े भी हो सकते हैं| किसी देश को एकजुट रखने के लिए शक्तिशाली फौज, परमाणु-बम, संपन्नता और केंद्र की सुद्रदढ़ सरकार काफी नहीं होती| गोर्बाच्यौफ के सोवियत संघ में यह सब कुछ था लेकिन फिर भी वह टूट गया| दुनिया की दूसरी महाशक्ति होने का सत्य भी उसे बचा नहीं पाया| वह क्यों टूटा ? इसलिए कि रूस की कम्युनिस्ट पार्टी टूट रही थी| कम्युनिस्ट पार्टी वह रस्सा थी, जिसने दुनिया के इस लंबे-चौड़े राष्ट्र को मजबूती से बॉंध रखा था| यह काम अकेले सरकार नहीं कर सकती थी| सरकारें तो नौकरशाहों और फौजों को एक किए रहती हैं| आम जनता को एक करनेवाला कौन होता है ? पार्टी होती है| सरकार का हुक्म नौकरशाह और फौजें मानती हैं| जनता उसे माने, यह जरूरी नहीं है| जनता से कोई बात मनवानी हो तो पार्टी ही एकमात्र् साधन रह जाता है| यह काम अपनी हार-जीत के बावजूद कई दशकों तक कॉंग्रेस करती रही| पिछले 20 वर्ष में कभी-कभी ऐसा लगता था कि कॉंग्रेस का यह स्थान शायद भाजपा ले लेगी लेकिन 2004 के चुनावों में इन दोनों अखिल भारतीय दलों को डेढ़-डेढ़ सौ सीटें भी नहीं मिलीं| देश की समस्त सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए| कई प्रातों में उनका खाता भी नहीं खुला| यदि इस 15 वें चुनाव में भी यही होता तो भारत का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होता ?
लेकिन अगर चुनाव-परिणाम की सूची पर नज़र डालं तो हमें पता चलेगा कि लगभग हर प्रांत में कॅंाग्रेस की उपस्थिति है| कश्मीर से केरल और महाराष्ट्र से मणिपुर तक कॉंग्रेस का परचम लहरा है| सिर्फ त्रिपुरा, नागालैंड, दादर-नागर हवेली, अंडमान-निकोबार और दमन-दीव जैसे छोटे-मोटे क्षेत्रें में कॉंग्रेस के उम्मीदवार नहीं जीते लेकिन कॉंग्रेस वहॉं भी है| अगर कॉंग्रेस नहीं जीती तो उनमें से कई स्थानों पर भाजपा जीती है| याने अखिल भारतीयता का रस्सा हर जगह मौजूद है| भारत की विविधता में एकता के इस सूत्र् के पुनरोदय का स्वागत है|
अखिल भारतीयता का दूसरा सूत्र् यह है कि इस चुनाव में क्षेत्र्ीय दलों का पराभव हुआ है| भारत की कम्युनिस्ट पार्टियॉं भी मूलत: क्षेत्र्य पार्टियॉं ही हैं| वे बंगाली और मलयाली उप-राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करती हैं| ज्यादातर क्षेत्र्ीय पार्टियॉं या तो प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों-जैसी हैं, या उनका आधार संकीर्ण, जातीय, भाषिक, या मज़हबी है| इस बार इन सभी पार्टियों को धक्का लगा है| ये पार्टियॉं अपनी-अपनी विधानसभाओं में दनदनाऍ ंतो ठीक हैं लेकिन संसदीय चुनावों में इनका शक्तिशाली होकर उभरना भारतीय राष्ट्र-राज्य की दृष्टि से उचित नहीं है| ये पार्टियॉं केंद्र में पहुंचकर बंदरबॉट में जुट जाती हैं, ब्लेकमेल करती हैं, राष्ट्रीय नीतियों का संतुलन चौपट कर देती है| केंद्र की सरकार को अस्थिर कर देती हैं| इस बार भारत की जनता ने स्थानीय और राष्ट्रीय मामलों को अलग-अलग करके देखा है| यह हमारे लोकतंत्र् की परिपक्वता का प्रमाण है| क्या कभी ऐसा भी हो सकता है कि जिन पार्टियों के पास अखिल भारतीय संगठन और सदस्यता न हो, उन्हें संसद का चुनाव लड़ने से ही वंचित कर दिया जाए !
इस बार वोट-बैंक की राजनीति भी धराशायी हो गई| जात, मज़हब, प्रांत, भूमिपुत्र्ता आदि जानदार तत्व भी मृतप्राय: सिद्घ हुए| न मंडल काम आया और न ही कमंडल ! सपा, बसपा, शिवसेना, पीएमके आदि ने अपने ही गढ़ों में जो पटकनी खाई, उससे क्या सिद्घ होता है ? यही कि यदि राष्ट्रीय दलों के पास अच्छे नेता हों, नीति हो, कार्यक्रम हो, पहुंच हो तो भारत की जनता को निम्न-पथ पर चलने की क्या जरूरत है ? वह पगडंडियॉं पकड़ने के बजाय महापथ पर ही चलेगी| इस दृष्टि से वर्तमान चुनाव-परिणामों का महत्व असाधारण है|
इसका अर्थ यह नही है कि भारत में द्विदलीय व्यवस्था का सूत्र्पात हो गया है| उसके कुछ संकेत जरूर हैं| फिलहाल कॉंग्रेस को न आधी सीटें मिली हैं और न भाजपा को एक-चौथाई तो भी दोनों को मिलाकर देश की सभी पार्टियों से ज्यादा सीटें मिली हैं| लगभग सवा तीन सौ सीटोंवाली ये दो पार्टियॉं चाहें तो ऐसी राजनीति भी कर सकती हैं कि अगले पॉंच वर्षों में उनके पास चार सौ से पॉंच सौ सीटें तक आ जाऍं लेकिन उसके लिए शायद अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली की जरूरत है| यदि भारत में अमेरिका की तरह राष्ट्रपति का चुनाव जनता सीधे मतदान से करने लगे तो क्षेत्र्ीय पार्टियों की कोई अखिल भारतीय भूमिका रह ही नहीं जाएगी| इस बार के संसदीय चुनाव पर अध्यक्षात्मक चुनाव का रंग भी छाया रहा| भावी प्रधानमंत्र्ियों के नाम उछलते रहे| इस बार चुनाव विषय-प्रधान नहीं, व्यक्ति-प्रधान रहे| यदि इस अनौपचारिक भाव-धारा को संवैधानिक रूप दे दिया जाए तो भविष्य में होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव भारत में द्विदलीय राजनीति कीे सुद्रदढ़ नींव डाल सकते हैं|
देश में द्विदलीय व्यवस्था के कायम होने का मतलब है, सच्ची अखिल भारतीयता का पनपना ! लेकिन यह अखिल भारतीयता अभी भी हमारे वर्तमान का सत्य नहीं है| यह सिर्फ एक संभावना है, एक मनोरथ है| क्षेत्रीय दलों की शक्ति अभी केवल क्षीण हुई है, उनका मूलोच्छेद नहीं हुआ है| वे अब भी अखिल भारतीय दलों की उंगली पकड़ते-पकड़ते पहुंचा पकड़ने के चक्कर में रहेंगे| वे गठबंधन की राजनीति चलाऍंगे| अखिल भारतीय दल इन क्षेत्र्ीय दलों के नेताओं और उनके स्वार्थों के साथ ताल-मेल बिठा सकें और उन्हें अपने में मिला लें, उनकी आवाज़ को अपनी आवाज़ बना लें तो गिरते-पड़ते भारत को महाशक्ति बनने में कितनी देर लगेगी|
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