नई दुनिया (इंदौर), 18 फरवरी 2004 : प्रधानमंत्री के तौर पर श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पॉंच नहीं, लगभग छह साल पूरे कर लिये हैं| पहले तो शिखर पर पहॅुंचना और फिर उस पर लगातार इतने लम्बे समय तक टिके रहना अपने आप में अजूबा है| अटलजी के अलावा कौन प्रधानमंत्री है, जो इतने लम्बे समय चल सका? केवल जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गॉंधी ! मोरारजी देसाई भी नहीं| चरणसिंह, वि.प्र. सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल का कार्यकाल इतना संक्षिप्त रहा कि उसे यहॉं बहस का विषय बनाना अनावश्यक है| ला.ब. शास्त्रीजी का आकस्मिक अवसान नहीं होता तो शायद वे भारत के रथ को ज़रा लम्बा खींच ले जाते| नेहरूजी और इंदिराजी के अलावा शिखर पर टिके रहने की सबसे लम्बी क्षमता नरसिंहरावजी ने दिखाई, जो सचमुच विलक्षण थी लेकिन उनकी सरकार गठबंधनात्मक नहीं थी और वे केवल एक बार प्रधानमंत्री बने, वह भी इसलिए कि श्री राजीव गॉंधी का आकस्मिक निधन हो गया| भारत के मतदाताओं ने उन्हें दूसरा मौका नहीं दिया, हालॉंकि वे युगान्तरकारी प्रधानमंत्री और मौन-क्रांति के संवाहक सिद्घ हुए| कार्यकाल तो राजीव गॉंधी का भी पॉंच वर्ष चला लेकिन क्या उसे राजीव गॉंधी का कहा जा सकता है? वह राजीव का नहीं, शहीद इंदिरा गॉंधी का मृत्योपरांत कार्यकाल था| राजीव को भी भारत के मतदाताओं ने दुबारा लौटने नहीं दिया| वे बोफर्स के प्रचार की पनचक्की में पिस गए|
लेकिन अटलजी हैं कि तीन बार प्रधानमंत्री बने| यह सौभाग्य केवल जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गॉंधी को मिला| पिता और पुत्री के इस जोड़े में और अटलजी के प्रधानमंत्री बनने में भी बुनियादी फर्क है| नेहरू को गॉंधी की विरासत मिली और इंदिरा को नेहरू की ! कल्पना कीजिए कि गॉंधी का टेका नहीं लगता तो क्या नेहरू प्रधानमंत्री बन पाते? और इंदिरा गॉंधी अगर सिर्फ फिरोज गॉंधी की पत्नी होतीं और नेहरू की बेटी नहीं होतीं तो क्या कामराज उन्हें प्रधानमंत्री बनवा पाते? क्या ये पद क्रमश: सरदार पटेल और मोरारजी को नहीं मिल जाते? इसका अर्थ यह नहीं कि नेहरूजी और इंदिराजी का अपना कोई पुण्य नहीं था| जवाहरलाल नेहरू स्वातंत्र्य-संग्राम के इतने कद्दावर नेता थे कि यदि वे प्रधानमंत्री नहीं बनते तो भी स्वाधीन भारत पर उनकी जबर्दस्त छाप होती| इसी प्रकार इंदिरा गॉंधी शुरू में चाहे ‘गूंगी गुडि़या’ दिखाई पड़ती रही हों लेकिन उन्होंने अपने सुकर्मों और कुकर्मों से भारत और दुनिया को हिलाया| वे महाप्रतापी प्रधानमंत्री सिद्घ हुईं| उन्होंने कई शिखर तोड़ दिए, वे कई शिखरों पर चढ़ गईं| चढ़कर लुढ़क गईं और लुढ़ककर फिर चढ़ बैठीं| इतना उतार-चढ़ाव किसी अन्य प्रधानमंत्री ने नहीं देखा| उन्होंने विरासत की विरासत को भी पचा लिया| वे केवल इंदिरा नहीं थीं| वे इंदिरा नेहरू गॉंधी थीं| फिरोज गॉंधी नहीं, महात्मा गॉंधी| दो-दो विरासतें|
लेकिन अटलबिहारी वाजपेयी को कौनसी विरासत मिली? कोई एक भी नहीं| विरासत में उन्हें अन्य जो कुछ भी मिला, कम से कम प्रधानमंत्री पद तो नहीं ही मिला| वास्तविकता तो यह है कि वे भारत के पहले गैर-कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री हैं| उनके पहले जितने भी गैर-कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री बने, वे प्रधानमंत्री बनते समय जरूर गैर-कॉंग्रेसी थे लेकिन उनका जन्म और लालन-पालन कॉंग्रेस में ही हुआ था| उन्हें बागी-कॉंंग्रेसी कहें तो बेहतर होगा| इस अर्थ में जैसे नेहरूजी पहले कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री थे, अटलजी पहले गैर-कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री हैं| और ऐसे प्रधानमंत्री जो पूरी तरह अपने बूते पर बने हैं| उन्हें न तो किन्हीं महात्मा की विरासत मिली और न ही कोई पितृव्य-प्राप्ति !
शायद इसीलिए वे 22 खसमों की खेती को इतनी अच्छी तरह चला पाए| कभी ममता के नखरे, कभी जयललिता के तेवर, कभी समता की वक्रताऍं, कभी चंद्रबाबू की मॉंगों का पहाड़, कभी विश्व हिन्दू परिषद की खाई, कभी द्रमुक के धक्के – उन्होंने क्या-क्या नहीं सहा| लेकिन उन्होंने राजग के गुब्बारे को फटने नहीं दिया| गठबंधन के नाजु़क गुब्बारे के सहारे वे सत्ता के उड़नखटोले को उड़ाए चले जा रहे हैं| ज़रा तुलना करें कि चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल के गुब्बारे अटलजी के गुब्बारे के मुकाबले कितने एकरूप और सहज थे लेकिन वे कितनी जल्दी पंचर हुए| यह ठीक है कि उनके नीचे कॉंग्रेस का सुआ लगा हुआ था लेकिन बड़ा सुआ हो या छोटी-मोटी सुइयॉं, किसी भी गुब्बारे की हवा निकलते कितनी देर लगती है| खुद अटलजी का गुब्बारा पहले दो बार पंचर हो चुका था लेकिन वे मुक़द्दर के सिकन्दर हैं| उन्हें तीसरा मौका मिला और उन्होंने गुब्बारे को उड़नखटोला बना दिया|
भारत जैसे विशाल देश में एक पार्टी का राज नहीं हो तो क्या उसे बिखर जाना चाहिए? क्या उसे सोवियत संघ की गति को प्राप्त होना चाहिए? कॉंग्रेस की अखिल भारतीय सत्ता के लड़खड़ाते ही यह अंदेशा भारत में भी पैदा हो गया था| ज़रा याद करें, 1967 के वे दिन जब तमिलनाडु में द्रमुक, पंजाब में अकाली दल, नागालैंड और मिजोरम के बागी संगठन और कश्मीर में शेख अब्दुल्ला क्या मॉंग रहे थे| पिछले तीन-साढ़े तीन दशकों में इन पृथकतावादी आंदोलनों की बगावत का आतप अब सत्ता की रोशनी में बदल गया है और भारत में अनेक क्षेत्रीय क्षत्रप उग आए हैं| इन क्षत्रपों ने अखिल भारतीय कॉंग्रेस को अपने दालान से बाहर कर दिया है और भाजपा जैसे किसी अखिल भारतीय दल को अंदर नहीं घुसने दिया है| यह स्थिति सबसे नाजुक है| ये क्षेत्रीय क्षत्रप केंद्र की केक में अपना टुकड़ा मॉंग रहे हैं| यदि यह टुकड़ा उन्हें नहीं मिलेगा तो किसी भी दिन भारत का शीराजा बिखरने की शुरुआत हो सकती है| यह भय पिछले दशक में इसलिए भी बढ़ गया था कि उसने लगभग पौन दर्जन प्रधानमंत्री देख लिए याने हर डेढ़ साल में एक नए प्रधानमंत्री का अनुपात बन गया| लगातार छह साल तक क्षेत्रीय छत्रपों को एकजुट बनाए रखना मेंढकों को तौलने से क्या कम है? दूसरे शब्दों में श्री अटलबिहारी वाजपेयी किसी भी अखिल भारतीय दल का विकल्प बन गए हैं| एक व्यक्ति वही भूमिका निभा रहा है, जो कभी एक दल निभा रहा था| एक अर्थ में अटलबिहारी वाजपेयी कॉंग्रेस बन गए हैं| गठबंधन-सरकार का सफलतापूर्वक पूर्णावधि पार करना भारत की टूट के विरुद्घ ठोस गारंटी बन गया है| अटल सरकार की इस अटलता ने सारे देश में आश्वस्ति का भाव उत्पन्न किया है| यदि कोई सरकार भयंकर अनर्थ न करे, कोई चमत्कारी काम न भी करे और अगर वह बस ठीक-ठाक चलती रहे तो भी लोगों को राहत-सी महसूस होती रहती है| आश्वस्ति का भाव अपने-आप पैदा हो जाता है| उसे पैदा करने के लिए करोड़ो रुपए के विज्ञापन देने की जरूरत नहीं होती|
इसमें शक नहीं कि अटलजी आज इसी आश्वस्ति की लहर पर सवार हैं| वे स्थायित्व के प्रतीक बन गए हैं| भारत की शासन-व्यवस्था संसदीय है, राष्ट्रपतीय नहीं| लेकिन आगामी चुनाव राष्ट्रपतीय प्रणाली का रूप लेते जा रहे हैं| वे बि्रटिश नहीं, अमेरिकी ढर्रे पर चल पड़े हैं| अटलजी बनाम सोनियाजी ! पहले भी व्यक्तिवाद का झंडा ऊॅंचा हुआ है लेकिन तब सवाल यह होता था कि ‘नेहरू के बाद कौन?, न कि यह कि ‘नेहरू बनाम फलॉं-फलॉं’| फलॉं-फलॉं बनाम फलॉं-फलॉं तो राजीव और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच भी नहीं हुआ था लेकिन अब अगर ‘अटल बनाम सोनिया’ हो रहा है तो उसकी जिम्मेदारी कॉंग्रेस की ही है, क्योंकि कॉंग्रेस के पास मुद्दों का टोटा है| उसके पास न नीति है, न नेता है| अटलबिहारी वाजपेयी के मुकाबले सोनिया गॉंधी को डटाना कितना हास्यास्पद है? यहॉं सवाल सिर्फ देसी-विदेशी का ही नहीं है, योग्य-अयोग्य, अनुभवी-गैर अनुभवी, असली-नकली का भी है| कॉंग्रेस के जनक ए.ओ.ह्यूम थे और सिस्टर निवेदिता और दीनबंधु एंड्रूज जैसे कॉंग्रेस के अनेक नेता विदेशी थे लेकिन उनका विदेशी होना दूषण नहीं, भूषण था| आम लोग सोचते थे कि ये गोरे भी कितने महान हैं कि गोरे होकर भी गोरी सरकार के खिलाफ़ लड़ रहे हैं लेकिन साधारणतया भारत-जैसे पूर्व-गुलाम राष्ट्रों में गोरों के विरुद्घ सामूहिक अवचेतन में गहरा अविश्वास और शत्रु-भाव भरा होता है| इसका शिकार यदि निर्दोष सोनिया को भी होना पड़े तो आश्चर्य नहीं| सोनिया इतालवी है, बि्रटिश नहीं| इतालवियों और अंग्रेजों का वैर-भाव जगत्विख्यात्र रहा है लेकिन आम आदमी को इतनी बारीकी में जाने का अवकाश नहीं होता| आम आदमी सोनिया को सिर पर बिठा लेता बशर्ते कि वे मदर तेरेसा या सिस्टर निवेदिता या मदाम ब्लावत्स्की की तरह कुछ सेवा, कुछ त्याग, कुछ साहस का काम करतीं| लेकिन वे जिस खेल में पड़ी हैं, वह त्याग का नहीं, भोग का,़ सेवा का नहीं, सत्ता का, कॉंटों का नहीं, रसगुल्लों का खेल है| इस खेल में रमनेवाले स्वदेशियों के प्रति ही जब लोग निर्मम होते हैं तो वे सोनियाजी को क्यों बख्शने लगे? दूसरे शब्दों में स्वयं कॉंग्रेस और सोनिया गॉंधी ने अटलबिहारी वाजपेयी को सारा मैदान सेंत-मेंत में संभला दिया है| इसीलिए जैसे सोनिया गॉंधी कॉंग्रेस के लिए अपरिहार्य बन गईं, अटलबिहारी वाजपेयी भारत के लिए अपरिहार्य बन गए हैं| जब तक सोनिया गॉंधी कॉंग्रेस की नेता रहेंगी, अटलबिहारी वाजपेयी भारत के लिए अपरिहार्य रहेंगे|
ु अटलबिहारी वाजपेयी की अपरिहार्यता का दोष भाजपा के माथे नहीं मढ़ा जा सकता, क्योंकि भाजपा में भटैत शैली का प्रादुर्भाव अभी तक नहीं हुआ है| कभी किसी ने नहीं पूछा कि ‘अटलजी के बाद कौन?’ इस कौन का जवाब मौन नहीं है, जैसा कि नेहरू या इंदिरा के ज़माने में हुआ करता था| स्वयं अटलजी ने इस तरह के सवालों को प्रोत्साहित नहीं किया लेकिन ‘अटल बनाम सोनिया’ बहस का नतीजा यह निकल रहा है कि सारा देश यह सोचने लगा है कि अभी तो अटलजी ही ठीक हैं| कौन-वौन के चक्कर में क्यों पड़ें?
प्रधानमंत्री के तौर पर अटलजी ने अपनी तीनों पालियॉं जिस शान से काटी हैं, किसी प्रधानमंत्री ने नहीं काटी| तेरह दिन की पहली पाली के बाद सारे देश को अफसोस हुआ कि एक सज्जन प्रधानमंत्री इसलिए नहीं टिक पाया कि वह तरह-तरह की घूस नहीं दे पाया| सहानुभूति की पहली लहर उमड़ी| दूसरी लहर तब उमड़ी, जब 13 माह बाद उसी प्रधानमंत्री की अच्छी-खासी सरकार केवल एक वोट से गिर गई| सहानुभूति की इन दो लहरों के अलावा करगिल-विजय के सेहरे ने अटलजी की छवि में चार चॉंद लगा दिए| मई 1998 में परमाणु बम विस्फोट करके इंदिराजी का मुकुट वे अपने मस्तक पर सजा चुके थे| भारत की संप्रभुता का ऐसा शंखनाद पहले कभी नहीं हुआ था| अपने पिछले पॉंच साल के दौरान बंगारू, जूदेव, रूडी आदि के कई धांधले हुए लेकिन अटलबिहारी वाजपेयी की छवि पर कोई ऑंच नहीं आई| काजल की कोठरी में से वे बेदाग निकल गए| ज़रा अन्य प्रधानमंत्र्िायों का हाल देखें| या तो वे अपने पद से ‘बड़े बेआबरू होकर निकले’ (मोरारजी, चरणसिंह, राजीव गॉंधी, नरसिंहराव, चंद्रशेखर, वि.प्र. सिंह, देवगौड़ा, गुजराल) या हत या हताश होकर निकले (लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गॉंधी, राजीव गॉंधी और जवाहरलाल नेहरू) ! प्रधानमंत्री-पद किसे फला? किसी को भी नहीं| किसी ने प्राण गॅंवाए, किसी ने प्रतिष्ठा गॅंवाई, कोई अधबीच में ही डूब गया और कोई पार भी हुआ तो मुजरिमों की तरह अदालतों के चक्कर लगाता रहा| अटलजी भाग्यशाली हैं कि वे अब तक इस तरह की फजीहत के शिकार नहीं हुए| चीनी आक्रमण या आपात्काल या बोफर्स या युवा आत्म-दहन या हर्षद मेहता जैसे दिल दहला देनेवाले कांड अटलजी के ज़माने में नहीं हुए| जो हुए, उनकी बला बंगारू, जॉर्ज, जू देव आदि के माथे टल गई|
जो मामले कलंक की तरह माथे पर चिपक सकते थे और दामन को चाक कर सकते थे, उन्हें भी अटलजी ने अपनी कविताई और चतुराई से सम्हाल लिया| नरेंद्र मोदी को राजधर्मी की सीख देकर और गुजराती मुसलमानों के सामने ऑंसू बहाकर अटलजी ने कम से कम अपना दामन बचा लिया| मंदिर के मुद्दे को राजग के एजेन्डे से बाहर करवा दिया लेकिन मंदिर-निर्माण को राष्ट्रीय-आकांक्षा बताकर उन्होंने संघ परिवार के मॅुंह में लड्डू रख दिया| इसी प्रकार पाकिस्तान के विरुद्घ नौ माह तक फौजें अड़ाकर उन्होंने हिन्दुत्ववादियों की अंगीठी सुलगाए रखी और उधर पाकिस्तान से वार्ता का द्वार खोलकर अमेरिकियों और कश्मीरियों की वाह-वाह लूट ली| भारत के मुस्लिम मतदाताओं को भी नरम करने में अब मदद मिलेगी| भारत की जो नई विश्व-छवि उभर रही है, एक सुदृढ़ आर्थिक शक्ति और जिम्मेदार परमाणु राष्ट्र के रूप में, उसका सीधा लाभ अगर प्रधानमंत्री को नहीं मिलेगा तो किसे मिलेगा? अटल सरकार ने देश के सम्पन्न और मध्य वर्ग को अगणित लॉलीपॉप थमाए तो किसानों और मज़दूरों को भी तरह-तरह की राहत दे डालीं| ऐसी अनेक योजनाऍं-सड़कों, नदियों, पुलों और रेलांे-संबंधी शुरू कीं, जो आत्म-विज्ञापनकारी हैं| इसीलिए जब उनके ‘फील-गुड’ या खुशनुमा माहौल के नारे की मज़ाक उड़ाई जाती है तो ज्यादा तालियॉं नहीं बजतीं| अखबारों और टीवी के पर्दों पर गाते-बजाते और खुशनुमा मुट्ठीभर चेहरों को देखकर देश के करोड़ों नंगे-भूखे भी तालियॉं बजाने लगते हैं| हम सम्पन्न लोग चाहे दूसरों के दुख से दुखी न हों लेकिन भारत के विपन्न लोग भी अद्रभुत हैं कि वे दूसरों के सुख में सुखी हो रहे हैं| भारत जैसे गरीब देश में किसी का भला होना तो बड़ी बात है, अगर बुरा न हो तो भी लोग खुशी से भर जाते हैं| इसी खुशी को खुशनुमा माहौल का आधार बनाया गया है| लगभग 60 साल से जन-राजनीति कर रहे अटलजी अनंत अन्तर्विरोधों को उछालते रहने और सुलझाते रहने में इतने माहिर हो गए हैं कि अब उनको चुनौती देना किसी दल या नेता के बस की बात नहीं रही है|
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